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________________ 112 हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि दोनों छोरों के मध्य भाग के प्रान्तों ने कहीं प्रेम की गंगा बहाई तो कहीं सुललित शैली में राजा का चरित गान कर उसके शौर्य पराक्रम की महिमा गाई। अपभ्रंश ने जन सामान्य के मुखार विन्द से लेकर कुशल शिल्पी काव्य कलाधरों के हाथ से तराशी जाकर वही वैभव प्राप्त किया जो किसी समय संस्कृत एवं प्राकृत ने प्राप्त किया था। अपभ्रंश के काल निर्धारण में विभिन्न मत हैं। ईसा के तृतीय शताब्दी से ही अपभ्रंश के बीज मिलने लग जाते हैं। यह अवश्य है कि अपभ्रंश उस समय शैशवा अवस्था में थी। भरत ने जिन उकार आदि रूपों की ओर इशारा किया है, वह वस्तुतः अपभ्रंश का ही संकेत करता है। किन्तु इस समय अपभ्रंश अपने निर्माण का मार्ग ढूँढ़ रही थी। इस काल में प्राकृत का प्रताप उद्दीप्त रूप में था। प्राकृत पट्टरानी के रूप में चतुर्दिक छायी हुई थी। कभी-कभी उसकी भिड़न्त संस्कृत से हो जाया करती थी। राज्यों के उत्थान पतन के साथ संस्कृत के भाग्य का निपटारा हुआ करता था। अशोक के राज्यकाल में दबकर वह कुछ विशिष्ट वर्गों की ही भाषा बनी रही। पालि और प्राकृत राजमहलों में पट्टरानी तो बनी ही जनता की भी श्री-वृद्धि हुई। वहीं मौर्यकाल की समाप्ति के अनन्तर पुष्यमित्र के राज्यत्व काल में संस्कृत की श्री वृद्धि हई। पुनः काल के पटाक्षेप के साथ-साथ समद्र गुप्त और-चन्द्र गुप्त विक्रमादित्य ने इसकी आभा को नभो मण्डल में अत्यधिक बिखेरा। इसकी अत्यधिक कान्ति बढ़ाई। फिर भी जनता से प्राकृत का नाता नहीं टूटा। वह बढ़ती चली और काफी बढ़कर फलित पुष्पित होकर संस्कृत की भाँति परिष्कृत लोगों की भाषा बन बैठी। प्राकृत साहित्य की छत्रछाया में अपभ्रंश अपना विकास करती रही। समाज के पिछड़े एवं निम्न वर्गों की भाषा ने शनैः-शनैः विकास पाना आरम्भ किया। राजनीतिक और सांस्कृतिक झंझावातों ने इसे प्रकाश रूप में लाकर खड़ कर दिया। इसका भी महत्व बढ़ चला और इसमें भी भावुकों ने अपनी भावाभिव्यक्ति करनी आरम्भ की।
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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