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________________ अपभ्रंश भाषा 111 शास्त्रीय विभागों की चर्चा की है और आभीरादिकों को महत्वपूर्ण स्थान दिया है। मार्कण्डेय ने अपभ्रंश के अन्तर्गत जिन बोलियों का उल्लेख किया है उनके अन्तर्गत कुछ पिशाच बोलियाँ भी आ जाती हैं। लक्ष्मीधर आदि82 ने पाण्डय, केकय और बाहलीक आदि को पैशाची के अन्तर्गत गिना है। सम्भवतः बाद में चलकर पैशाची बोलियाँ भी अपभ्रंश के अन्तर्गत समाहित हो गयीं थीं। अपभ्रंश का काल मध्य भारतीय आर्यभाषा के विकास के तीन सोपान माने गये हैं- . (1) पूर्व मध्य भारतीय आर्यभाषा का रूप जो कि अशोक और दूसरे शिलालेखों में तथा पालि में पाये जाते हैं। (2) द्वितीय म० भा० आ० या प्राकृत जिसका प्रतिनिधित्व महाराष्ट्री, शौरसेनी, पैशाची, अर्द्धमागधी, और मागधी करती है। (3) म० भा० आ० का प्रतिनिधित्व अपभ्रंश करती है और इसका परवर्ती रूप लौकिक या अवहट्ट (अपभ्रष्ट) है। न० भा० आ० भाषाओं का विकास इसी अपभ्रंश या अवहट्ट से हुआ है। न० भा० आ० की कथ्य भाषाएँ बंगला, असमिया, उड़िया, मैथिली, और हिन्दी के अन्तर्गत आनेवाली भोजपुरी, मगही, अवधी, ब्रजभाषा तथा खडी बोली आदि, तथा नेपाली, पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती और मराठी आदि हैं। संस्कृत और प्राकृत के समान ही अपभ्रंश भी जनभाषा तथा साहित्यिक भाषा थी। इसके भी विभिन्न क्षेत्रीय भेद अवश्यमेव रहे होंगे। फिर भी अपभ्रंश एक ऐसी परिनिष्ठित साहित्यिक भाषा थी जिसका विकास पश्चिमोत्तर और पश्चिम दक्षिण राजस्थान, गुजरात, सिन्ध और पंजाब से लेकर बंगाल तक हुई थी। अगर पश्चिम में जैनियों ने धार्मिक रूप देकर साहित्य सृष्टि की तो पूरब में बौद्धों ने इस भाषा के माध्यम से सहज सिद्ध का मार्ग दिखाया।
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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