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________________ हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि शब्द के आगे 'आदि' पद के जुटने से यह निष्कर्ष निकलता है कि अपभ्रंश पर केवल आभीरों का ही आधिपत्य नहीं था। यह भी निश्चित है कि उन आभीरों के इस भारतवर्ष में आने पर उनके साथ यह अपभ्रंश भाषा नहीं आई थी। यह सत्य है कि जहाँ कहीं भी वे और दूसरे लोग उनके साथ गये, उन लोगों ने वहाँ की तत्कालीन प्रचलित क्षेत्रज प्राकृत बोली को अपनाया। इस कारण अपभ्रंश की प्रकृति में बहुत ही अधिक परिवर्तन हो गया। संभवतः इसीलिये भरत ने इसे विभ्रष्ट कहा जो कि अपभ्रंश या अपभ्रष्ट का पार्यायवाची शब्द प्रतीत होता है। दण्डी के समय आते-आते यह साहित्यिक अपभ्रंश पूर्ण समृद्धि पर पहुंच चुकी थी। इसमें लिखने वाले विद्वत्समुदाय का एक समूह ही हो गया था। इस भाषा में सभी प्रकार के विषयों पर ग्रन्थ लिखे जाने लगे। उस समय यह जनसाधारण से लेकर सुसंस्कृत लोगों तक की भाषा हो गयी। सामान्य जनता में आभीर, शबर और चाण्डाल आदि लोग भी आते थे। इस तरह डा० गुणे के शब्दों में हम बिना किसी कारण के कह सकते हैं कि आभीर आदि लोगों के भारत में फैलने पर इस भाषा में समय-समय पर या एक साथ ही परिवर्तन हो गया जिससे कि अपभ्रंश भाषा के रूपों में भी भिन्नता आ गयी। संभवतः इसी कारण प्राकृत वैयाकरणों ने अपभ्रंश के विभिन्न रूपों का वर्णन किया है |38 पहले हम बता चुके हैं कि आधुनिक अनुसंधान ने दंडी का समय सम्वत 700 ई० के पहले रखा है; इस समय तक आभीर आदि जातियों ने अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया था। 300 से 600 ई० तक के बीच में आभीरों का भारत में राजनीतिक महत्व स्थापित हो चुका था। इन आभीरों ने अपनी राज सत्ता स्थापित कर ली थी। शनैःशनैः यह जाति प्रभुता सम्पन्न होती जा रही थी। ईस्वी सन् 181 में क्षत्रप रूद्र सिंह के समय में आभीर को सेनापति का पद सम्हालने का उल्लेख मिलता है |39 सन् 300 ई० में शिवदत्त का पुत्र ईश्वर सेन जो नासिक का शासक था, वह आभीर ही था।
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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