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________________ अपभ्रंश भाषा 95 (4) पिय वाइ वायर्तुं उसुवसंत कालउ। पिय कामुको पिय मदणं जणंतउ।। (5) वायदि वादो एह पवाह रूसिद इव।। इन छन्दों में 'उकार' प्रवृत्ति तो स्पष्ट है ही 'मेहउ, जोण्हउ आदि' शब्द संज्ञावाची हैं। एहु, एह जैसे शब्द रूप सर्वनाम के हैं। मोरुल्लउ में ‘उल्ल' अपभ्रंश के स्वार्थिक प्रत्यय हैं। हंसवहूहि, पवाहि का 'हि' प्रत्यय भी संज्ञा का है। डा० गुणे का कहना है कि यद्यपि भरत के पाठ विशुद्ध परिष्कृत किये हुए प्रामाणिक नहीं हैं फिर भी पूर्वोक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि अपभ्रंश के प्रारम्भिक बीज इनमें उपलब्ध होते हैं ये अपभ्रंश की निर्माणावस्था के परिचायक हैं। इसी प्रदेश की बोली को आभीरोक्ति कहते हैं। इतने विस्तार से भरत के विषय में चर्चा करने का मेरा मतलब यही था कि दण्डी ने अपभ्रंश के विषय में जिस आभीर आदि का उल्लेख किया है वह वस्तुतः भरत की विभाषा से मिलता जुलता है। केवल आभीरों की ही यह भाषा नहीं थी। पूर्वोक्त बातों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि दण्डी ने साहित्यिक दृष्टि से ही कुछ प्रमुख भाषाओं का वर्णन किया है भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से नहीं। उसकी साहित्यिक चर्चा और साहित्यिक विभाजन से कई बातें हमारे समक्ष उपस्थित होती हैं। प्रथम तो यह कि अपभ्रंश भाषा का साहित्यिक रूप हमारे सामने आता है। यह अब केवल संस्कृत नाटकों में निम्न पात्रों के लिये ही प्रयुक्त नहीं होती जैसा कि भरत ने किया है। इसका पूर्ण स्पष्टीकरण दण्डी ने नहीं किया है। केवल उसने अपभ्रंश में प्रयुक्त कुछ निश्चित छन्दों का वर्णन मात्र कर दिया है। आभीर आदि वाक्य अपभ्रंश की सामान्य प्रकृति का ही चित्रण करते हैं। इससे अपभ्रंश भाषा पर पूर्ण प्रकाश नहीं पड़ता। इससे हम भाषा वैज्ञानिक निचोड़ नहीं निकाल पाते जैसा पहले विचार किया जा चुका है कि आभीर
SR No.023030
Book TitleHemchandra Ke Apbhramsa Sutro Ki Prushthabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamanath Pandey
PublisherParammitra Prakashan
Publication Year1999
Total Pages524
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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