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________________ शरीर के आन्तरिक अवस्थानों पर, बाहर से ग्रहण किये गये, अपाच्य पदार्थों का ही नहीं, मलिन विचारों का भी दुष्प्रभाव पड़ता है। समझिये कि ज्योंही मलिन भावों ने, सर्वतन्त्रों पर अपना प्रभाव छोड़ा, त्योंही भीतर में एक अचकचाहट-सी फैल जाती है। उस समय में श्वास विधिज्ञ-साधक, उन भावों के प्रभाव को तत्क्षण निष्फल बनाने की अपनी कला का, यदि प्रयोग करे तो इन भावों के प्रभाव को नासिका के माध्यम से वापस बाहर फेंक सकता है। उन मलिन भावों के प्रभाव के स्थान पर तब वह शुभ भावों के प्रभाव को व्याप्त बना सकता है। जैसे पंप (नल या ट्रॅटी) की सहायता से टंकी में भरे गंदे पानी को बाहर फेंक कर भीतर साफ पानी भरा जा सकता है, उसी प्रकार यह नासिका पंप का काम करती है। इस एकदेशीय रूपक को समझ कर यदि साधक मलिन भावों को श्वासनली से बाहर निकालता रहे और निर्मल भावों को भीतर ग्रहण करता रहे तो उसकी साधना दिन-प्रतिदिन फलवती बनती जाती है। एक दिन वह लक्ष्य के समीप भी पहुंच सकता है। एक दृष्टान्त से इसे समझिये। जिस समय साधक के भीतर में क्रोध का मलिन भाव उठे तो उस समय वह उस भाव को वाणी अथवा शरीर के अन्य अवयवों से बाहर प्रकट न होने दे, अपितु श्वासविधि के माध्यम से शान्त-प्रशान्त श्वास वर्गणाओं के स्कंधों को भीतर खींचे। जितने स्कंधों को खींच सके, उन्हें वह खींचे तथा दो सैकिंड का श्वास का आन्तरिक कुंभक करे और बाद में लयबद्ध आन्तरिक श्वास को बाहर फैंकने की चेष्टा करे। ऐसी प्रक्रिया कुछ समय तक करते रहने पर क्रोध का प्रभाव सफल न होकर निष्फल बाहर निकल जायगा। शान्त वर्गणा से सम्बन्धित श्वास वर्गणा का बारी-बारी से भीतर प्रवेश होने के कारण कषाय-क्रोध विषयक दुर्गंध समाप्त हो जायगी। यही प्रक्रिया काम-विकार अथवा अन्य प्रकार के विकारों को बाहर निकालने में सक्षम बनती है। शरीर में विकृत पदार्थों की अथवा मलिन भावों की भारी गंदगी भरी रहती है, यदि साधक सम्यक् रीति से श्वासानुसंधान करे और उससे समबन्धित प्रक्रियाओं का विवेक सहित उपयोग करे तो शरीर में फैल रही इस गंदगी को दूर की जा सकती है तथा वहाँ शुद्धता का संचार किया जा सकता है। काम, क्रोध आदि की गंदगी के बीच में कई बार निमित्त-नैमेत्तिक सम्बन्ध, कार्य-कारण सम्बन्ध आदि भी नजर में आते हैं। आन्तरिक क्रियाकलापों के अस्त व्यस्त हो जाने से भीतर में दुर्गंध व्याप्त हो जाती है। इस दुर्गंध का प्रभाव नियंत्रण केन्द्र पर पड़ता है और ज्यों ही नियंत्रण केन्द्र शिथिल हो जाता है त्यों ही काम क्रोध का दुष्प्रभाव प्रकट होने लग जाता है। इससे पहले से व्याप्त दुर्गंध और अधिक गहरी हो जाती है। यदि यही क्रम दीर्धकाल तक इसी प्रकार चलता रहे तो व्यक्ति का समग्र जीवन दोनों प्रकार की गंदगियों से भर उठता है, और सड़ांध मारने लगता है। इन दोनों प्रकार की गंदगियों की सघनता केवल श्वास-तंत्र को प्रभावित बना कर ही समाप्त नहीं हो जाती है, बल्कि अन्य तंत्रों पर भी अपना दुष्प्रभाव छोड़ती है। इससे तपस्तंत्र पर भी बुरा असर पड़ता है। इस हेतु साधक को उपवास-व्रत या लम्बी तपस्या करने का अभ्यास बनाना चाहिये ताकि अन्दर की दुर्गंध अन्दर ही समाहित हो जाय। उसके साथ ही शेष गंदगी को विरेचन पदार्थ आदि के माध्यम से बाहर निकालकर आहार तन्त्र को स्वस्थ एवं सक्रिय बनाना समीक्षा के लिये आवश्य है। इस शेष गंदगी को बाहर निकालने में श्वास तंत्र सहायक होगा तो गंदगी बाहर निकल जाने के बाद वह पुनः स्वस्थ रूप से सक्रिय भी बनेगा। जिससे नियंत्रण केन्द्र सबल बन जाता है और नये केन्द्रों से प्रवेश पाने वाली गंदगी भीतर पहुँच नहीं पाती है। साधक यदि प्रत्येक समय सावधान रहे और अपने विवेक २७
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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