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________________ यह समाज किसी विशिष्ट सम्प्रदाय, वर्ग या जाति समूह का नहीं होना चाहिये तथा न ही इसे किसी व्यक्ति विशेष से ही प्रभावित रखा जाना चाहिये। सच कहें तो यह संगठन सभी समता साधकों का होगा जो समता के दार्शनिक और व्यावहारिक पक्षों के विचार तथा आचरण में एकनिष्ठा रखते होंगे एवं संगठन को अपने प्राणपण से अभिवृद्ध बनायेंगे। कर्मठ क्रियाशीलता ही संगठन की शक्ति होगी। समता समाज के संगठन एवं संचालन का कार्य गृहस्थों के अधीन ही रहे क्योंकि समता अभियान के प्रसार का मुख्य कार्य क्षेत्र भी तो मूल रूप में सांसारिक क्षेत्र ही होगा। सांसारिक जीवन की विषमताओं के विरुद्ध ही इस संगठन को पहला मोर्चा साधना होगा और वहां की सफलता के साथ आध्यात्मिक क्षेत्र में भी कार्य का विस्तार हो सकेगा। यों साधकों की साधना मुख्य रूप से समीक्षण ध्यान पद्धति पर आधारित होगी तथा उनकी व्यक्तिगत जीवन शैली अधिकाधिक आध्यात्मिक ही होगी। प्रारंभ में तो समता समाज का अपना विधान हो, उत्तरदायी पदाधिकारी हों तथा अभियान को फैलाते जाने की सुगठ योजना हो । अभियान में ज्यों-ज्यों सफलता मिलती जावे, संगठन के कार्य एवं क्षेत्र का विस्तार होता रहे। समता समाज के संगठन के सम्बन्ध में एक तथ्य सदा ध्यान में रखा जावे कि यह संगठन अनेकानेक संगठनों की तरह नगण्य संगठन ही बनकर न रह जाय अथवा समग्र सामाजिक दृष्टिकोण से अलग-थलग न पड़ जाय। समता समाज का प्रारंभ इसी विस्तृत दृष्टिकोण के साथ होना चाहिये कि उसका उद्देश्य समूची मानव जाति में समता स्थापित करना है। आरंभ भले छोटे समुदाय से और छोटे क्षेत्र से हो किन्तु भावी विस्तार व्यापक क्षेत्र में होना चाहिये। यह विस्तार इस तथ्य पर निर्भर करेगा कि संगठन सदा व्यापक जनहितों से जुड़ा रहता है और उसके सदस्य विशाल दृष्टिकोण, गहरी आस्था तथा अमित उत्साह से ओतप्रोत बने रहते हैं। किसी भी संगठन को जीवन्त बनाने के लिये उसमें जीवनी शक्ति लगानी पड़ती है तथा आत्मयोग देना पड़ता है। समता की जय यात्रा मशाल कुछ हाथ ही थामते हैं किन्तु उसकी रोशनी से अनेक चेहरों को वे रोशन बनाते हैं तो उन चेहरों को रोशनी की आब देकर उन हाथों को भी मशालें उठाने के लिये तैयार कर देते हैं। इसे ही एक बाती से दो और हजार बतियां जलाने की प्रक्रिया कहते हैं। प्रकाश-दान से प्रकाश विस्तार होता है, उसी तरह समता लेने और समता देने से समता का विस्तार और प्रसार होगा। समतावादी, समताधारी तथा समतादर्शी के स्थूल चरणों में समता का स्वरूप विकसित बनकर छः काय के रक्षक रूप में परिणत हो सकेगा और तब तक समीक्षण ध्यान की साधना में परिपक्वता प्राप्त कर लेगा। फिर समीक्षण ध्यान से समता की यात्रा समता की जय यात्रा के रूप में चलेगी जो चौदह गुणस्थानों के सोपानों पर आरूढ़ होती हुई समदर्शिता के शिखर तक पहुंच जायगी। इस जय यात्रा का समापन सिद्धावस्था में शाश्वत आनन्द, अव्याबाध सुख एवं अक्षय शान्ति के साथ होगा और यही जय यात्रा आत्म विकास की जय यात्रा बन जायगी जो सदा काल के लिये आत्मिक जय विजय का रूप ले लेगी। ४६३
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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