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________________ प्रेरणा एवं अनुकरण का प्रतीक भी बन जाता है। अन्तःकरण में जो कुछ श्रेष्ठ है, वह गूढ़ हो सकता है, किन्तु जब तक उसे सहज रूप में बाहर प्रकट नहीं करें, उसकी विशेषताओं का व्यापक रूप से प्रसार नहीं हो सकता है। समता दर्शन के सम्बन्ध में भी यह कहा जा सकता है कि यदि इसके भी बाह्य प्रतीक निर्मित कर दिये जाय तो इसके प्रचार-प्रसार में विशेष सुविधा होगी। समता दर्शन का कोई अध्ययन करे तथा उसके व्यवहार पर भी कोई सक्रिय हो, किन्तु यदि ऐसे साधकों को एक सूत्र में बांधने तथा बांधे रखकर प्रचार माध्यमों को सशक्त बनाने के लिये किसी संगठन की रचना की जाय तो समता अभियान का एकीकृत रूप बनेगा और साधक भी परस्पर के सम्पर्क से अभियान को विशेष संबल दे सकेंगे। समता अभियान के ऐसे एकीकृत एवं संगठित स्वरूप से अधिकाधिक जन समुदाय इसकी तरफ आकर्षित हो सकेंगे तथा यथायोग्य रुचि लेना चाहेंगे। एक प्रकार से समता के दर्शन एवं व्यवहार पक्षों का मूर्त रूप ऐसा समता समाज होना चाहिये जो समता मार्ग पर स्वस्थ एवं स्थिर गति से अग्रसर हो और उस आदर्श की ओर अधिकाधिक लोगों को प्रभावित करे। समाज में वर्तमान अनेक संगठनों में एक और संगठन की वृद्धि से क्या लाभ ? मानव समाज कई राष्ट्रों में विभक्त होकर इतना विशाल समाज है कि एक ही बार में उसे समग्र रूप से आन्दोलित करना चाहें तो वह एक कठिनतम कार्य होगा और महान् कार्य भी एक साथ नहीं साधा जा सकता है। इसी कारण क्रमबद्ध रूप से आगे बढ़ना होता है। समतामय जीवन प्रणाली की स्थापना का कार्य और वह भी आज की विषमतम परिस्थितियों में अतीव दुरूह कार्य है। अपने नवीन परिप्रेक्ष्य में समता के विचार बिन्दुओं को हृदयंगम कराने तथा उसके आचरण को व्यापक रूप से अमल में लिवाने के लिये क्रमबद्ध कार्यक्रम सहित किसी जीवन्त संगठन का होना अत्यावश्यक है। संगठन की जीवन्तता उसके सदस्यों पर निर्भर करेगी, इसलिये समता समाज के सदस्य इच्छा और कर्मठ शक्ति के धनी होने चाहिये। उनका विचार पक्ष स्पष्ट होना चाहिये, हृदय पक्ष सत्य शोधक तथा आचरण पक्ष परम पुरुषार्थी। सदस्यों की कर्मठता पर ही समता समाज को प्राभाविक बनाया जा सकेगा। समता समाज के इस रूप में उद्देश्य निर्धारित किये जा सकते हैं—(१) व्यक्तिगत रूप से समता-साधक को समतावादी, समताधारी एवं समतादर्शी की श्रेणियों में साधनारत बनाना तथा उनके व्यक्तित्व को विकेन्द्रित करने की दिशा में उन्हें प्रगति कराना। (२) मन की विषमता से लेकर विश्व के विभिन्न क्षेत्रों की विषमताओं से संघर्ष करना एवं सर्वत्र समता की भावना का प्रसार करना। (३) व्यक्ति और समाज के हितों में ऐसे तालमेल बिठाना, जिससे दोनों पक्ष समतामय स्थिति बनाने में एक दूसरे की पूरक शक्तियां बन सकें—समाज व्यक्ति के लिये समतल धरातल बनावे तो व्यक्ति उस पर समता सदन का निर्माण करे। (४) स्वार्थ, परिग्रह की ममता एवं वितृष्णा को सर्वत्र घटाने का अभियान छेड़कर स्वार्थों तथा विचारों के संघर्षों को रोकना तथा सामाजिक न्याय एवं सत्य को सर्वोपरि महत्त्व देना। (५) स्थान-स्थान पर समता साधकों को संगठित करके समाज की शाखाओं उपशाखाओं की स्थापना करना, सामान्य जन को समता का महत्त्व समझाने की दृष्टि से विविध संयत प्रवृत्तियों का संचालन करना एवं सम्पूर्ण समता उक्रान्ति की दिशा में सचेष्ट रहना। ४६२
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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