SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 478
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवन के समस्त आचरण को तदनुसार ढाल लेना। व्यवहार के मार्ग में ऐसे ऐसे थपेड़े आते हैं कि कई बार अच्छे अच्छे साधक भी चलायमान हो जाते हैं। यह व्यक्तिगत जीवन की बात है लेकिन सामाजिक जीवन में भी ऐसे थपेड़े कभी इतने प्रबलतम होते हैं जो सारी सामाजिक व्यवस्था को अस्त व्यस्त करके व्यक्ति-व्यक्ति के सामान्य जीवन को भी दुःखपूर्ण बना देते हैं। समता के व्यवहार्य पक्ष में भी व्यक्ति और समाज के जीवन क्षेत्रों में ऐसी कठिनता आवे यह अनहोनी बात नहीं है। __ समतामय जीवन को व्यवहार रूप में अपनाने के बीच में भी व्यक्तिगत एवं समाजगत बाधाओं का आरपार नहीं रहता है। समाज में जिस वर्ग के स्वार्थ किसी भी रूप में निहित हो जाते हैं, वह वर्ग अपने स्वार्थों की रक्षा के अंधेपन में सदैव विषमता का पक्षधर बनकर समता का विरोध करने लगता है। तब उसके हृदय परिवर्तन की आवश्यकता महसूस होती है। इसलिये जहां समता के व्यवहार्य पक्ष पर विचार करना होता है, वहां गहराई से यह खोजना जरूरी है कि व्यवहार्य पक्ष की मल कमजोरियां कौन कौनसी है और उनके विरुद्ध किन किन उपायों से संघर्ष किया जा सकता है एवं व्यवहार्य पक्ष को व्यक्ति एवं समाज दोनों के आधारों पर सुदृढ़ बनाया जा सकता है ? समता के व्यवहार्य पक्ष को सुदृढ़ बनाने कि लिये प्रत्येक आत्मा में रही हुई स्वहित की के उचितानुचित विकास प्रक्रिया को समझ लेना चाहिये। बच्चा गर्भाशय से बाहर आते ही चाहे और कुछ समझे या न समझे, वह अपनी भूख को तो तुरन्त समझ लेता है और जब भी भूख से पीड़ित होता है, वह स्तन पान के लिये मुंह फाड़ फाड़कर रोना शुरू कर देता है। यह बात मानव शिशु के साथ ही नहीं है, छोटे से छोटे जन्तु में भी स्व-हित की या स्व-रक्षा की संज्ञा होती है। जहां चींटियां चल रही हों, वहां जब कोई राख बिखेर देता है तो चींटियां उसे अपने लिये खतरा मानकर बचाव के लिये वहां से तुरन्त खिसक जाती हैं। आशय यह है कि छोटे बड़े प्रत्येक जीव में आरंभ से ही स्वहित एवं स्वरक्षा की जागृत चेतना रहती है। स्वहित की इस आरंभिक संज्ञा का विकास निम्न रूप में तीन प्रकार से हो सकता है जिनका मूल आधार उस प्रकार के वातावरण पर निर्मित होगा- (१) पहला प्रकार यह हो सकता है कि यह स्वहित की संज्ञा एकांगी ए बनकर कुटिल स्वार्थ के रूप में ढल जाय कि मनुष्य को उसके आगे और कुछ भला बुरा सूझे ही नहीं। अपना स्वार्थ है तो सब है और वह नहीं तो अपना कोई नहीं - दूसरों के हित की तरफ दृष्टि तक न मुड़े। ऐसी प्रकृति उसके अपने जीवन और अपने संसर्गगत सामाजिक वातावरण में गहन विषमता को जन्म देती है। और समता की जड़ों को मूल से ही काटती है। (२) स्वहित –परहित के सन्तुलन का दूसरा प्रकार एक रूप में समन्वय का प्रकार हो सकता कि अपना हित भी आदमी देखे किन्तु उसी लगन से दूसरों के हित के लिये भी वह तत्पर रहे। अपने व दूसरों के हितों का वह इतना सन्तुलन बनादे कि कहीं दोनों के बीच टकराव का मौका नहीं आवे। साधारण रूप से समाज में समग्र दृष्टि से इस प्रकार की क्रियान्विति की आशा की जा सकती है। यह समता की दिशा होगी। (३) तीसरा ऊंचे त्यागियों और महापुरुषों का प्रकार हो सकता है जो परहित के लिये स्वहित का भी बलिदान कर देते हैं। ऐसे बलिदानी सर्वस्व त्याग की ऊंची सीमाओं तक भी पहुंच जाते हैं। सच कहें तो विश्व को समता का दिशा दान ऐसे महापुरुष ही किया करते है। उन के त्यागमय चरित्र से ही समता की सर्वोत्कृष्ट अवस्था प्रकाशित होती है। ४५३
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy