SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 451
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एक आत्मा का सर्वोच्च लक्ष्य है कर्म मुक्त हो जाना याने कि आत्मा के मूल स्वभाव पर जितने विकारों के आवरण हैं, उन्हें हटाकर आत्मा को उसके मूल निर्मल स्वरूप में प्रतिष्ठित कर देना। यही आत्मा का मोक्ष होता है, उसकी सिद्धि होती है। सिद्धात्मा ही समत्व योगी और समतादर्शी होती है। ये जो कर्म हैं, आत्मा के विकारों के पापों के प्रतीक हैं—आत्मा की विकृत कृतियों के द्योतक हैं। कर्म पुण्य रूप भी होते हैं और उनका फल सुखद भी होता है, फिर भी सभी प्रकार के कर्मों का अन्त ही आत्मा को मोक्ष में पहुंचाता है क्योंकि कर्म सदा ही विषमता का परिचायक होता है। जहां तक लेश मात्र भी विषमता है, पूर्ण समता की अवाप्ति नहीं होती है। पूर्ण समता आध्यात्मिक समता ही हो सकती है और इस दृष्टि से पूर्ण समता की अवाप्ति एक आत्मा द्वारा ही संभव है जो अपनी सजग एवं कठिन साधना द्वारा अपने उत्थान के चरम के रूप में अवाप्त करती है। पूर्ण समता आन्तरिक समता होती है। इसी आन्तरिक समता से बाह्य समता होती है जो बाह्य वातावरण को समानता के सांचे में ढालने का यल करती है। बाह्य वातावरण इतना विषम होता है और अनेकानेक आत्माओं के संचरण से इतना जटिल कि वहां पूर्ण समता की कल्पना दुःसाद्य है यह अवश्य है कि यदि पूर्ण समता को साध्य के रूप में सदैव समक्ष रखें तो जटिल विषमता का अन्त किया जा सकता है तथा संसार के बाह्य वातावरण को भी सुखद मानवीय मूल्यों से विभूषित बनाया जा सकता है। आदर्श ही नीचा हो तो उसकी प्राप्ति बहुत नीची होगी, लेकिन सर्वोच्च आदर्श को दृष्टि में रखकर जो भी प्रगति सामूहिक रूप से साधी जा सकेगी, वह भी अति मूल्यवान सिद्ध हो सकेगी। जीवन का उद्भव और संचरण सांसारिक दृष्टि से एक जीवन का उद्भव वर्तमान जन्म के आरंभ से माना जायगा, जबकि आध्यात्मिक दृष्टि से जीवन के उद्भव का प्रश्न ही नहीं है, क्योंकि यह आत्मा अनादिकाल से इस संसार के जन्म-मरण के चक्र में परिभ्रमण कर रही है तथा वर्तमान जीवन उसी की एक कड़ी है। दोनों दृष्टियों का समन्वय यों किया जा सकता है कि एक बालक जब गर्भावस्था में आता है तो वह अपने साथ अपने पूर्वजन्म के संस्कार (कर्म बंध) भी लाता है तो वर्तमान जन्म के संस्कारों को भी ग्रहण करता है जो उसे अपने निकट के वातावरण से प्राप्त होते हैं। फिर भी एक बालक और एक वयस्क की तुलना में वह बालक अधिक निश्छल और निर्दोष दिखाई देता है, जिसका स्पष्ट अभिप्राय यही माना जा सकता है कि यह बाह्य संसार जिसमें सभी जीते हैं और जिसको सभी देखते हैं, बहुत अधिक विषम परिस्थितियों में चल रहा है। तभी तो ये विषम संस्कार एक बालक को वयस्क बनते-बनते इतना अधिक जकड़ लेते हैं कि तुलनात्मक दृष्टि से उसका जीवन अधिकाधिक विषम बनता चला जाता है। ___ आशय यह है कि संसार की वर्तमान परिस्थितियां दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक विषम होती जा रही हैं जो एक बालक से उसकी जन्मजात निश्छलता और निर्दोषता को छीन लेती हैं। कल्पना करें कि यदि एक सीमा तक संसार की इस विषमता को बढ़ने से रोक दें अथवा एक सीमा तक समतामय व्यवस्था की स्थापना कर दें तो क्या यह नहीं हो सकता कि एक बालक की जन्मजात निश्छलता और निर्दोषता सामान्य रूप से अधिक समुन्नत न बन सके तो अधिक विकृत तो न बने । संसार के बाह्य वातावरण को इस सीमा तक तो समतामय बनाया जाय कि एक बालक को, एक ४२६
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy