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________________ अध्याय ग्यारह समता जीवन विकास का मूलमंत्र तथा जीवन का चरम साध्य है। आत्म-समीक्षण से लेकर समता अवाप्ति तक की जय यात्रा ही जीवन की जय यात्रा है। समीक्षण का अर्थ है समान रूप से देखना और आत्म समीक्षण होता है अपनी आत्मा को समान रूप से देखना तथा यही समान रूप से देखना होता है संसार की समस्त आत्माओं के संदर्भ में । यह समीक्षण ही बोध देता है आत्म-समता का कि सभी आत्माएं समान है— एक हैं । यह अनुमान और यह दृष्टि ही समता का मूल है अर्थात् समीक्षण मूल है और समता उसका वट वृक्ष जो समस्त संसार को अपनी शीतल एवं सुखदायक छाया में लपेट लेना चाहती है। समीक्षण कारण है तो समता उसका कार्य । समीक्षण मूल है तो समता उसका सुवासयुक्त फूल । समीक्षण सम्पूर्ण संसार को समान दृष्टि से देखने की प्रेरणा देता है तो समता समस्त संसार को समानता में ढाल देने के अपूर्व कृतित्व को अनुप्राणित करती है । दृष्टि से कृति तक की यह यात्रा ही आत्म विकास की महायात्रा है जो मन, वाणी और कर्म को एकरूपता तथा समरसता प्रदान करती है। समीक्षण ध्यान की साधना से यह आत्मा एक निष्ठ बनती है और मन तथा इन्द्रियां एकाग्र तो इनमें जो एक है और जिसके प्रति एक निष्ठ तथा एकाग्र होना है, वही एक है समता । समता स्थिति भी है तो आचरण भी । समता साध्य भी है तो साधन भी । सच पूछें तो समता एक व्यक्ति का ही साध्य नहीं अथवा एक आत्मा का ही साध्य नहीं, अपितु सम्पूर्ण संसार का साध्य है । साध्य इस दृष्टि से कि एक व्यक्ति या आत्मा अपनी आन्तरिकता को समता से ओतप्रोत बनाले और अन्ततोगत्वा समत्त्व योगी या समतादर्शी बन जाय । समता सम्पूर्ण संसार का साध्य इस दृष्टि से कही जायगी कि संसार के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि विभिन्न क्षेत्रों में तथा स्वयं व्यक्तियों के सामूहिक रहन सहन तथा व्यवहार में जितना अधिक समता का प्रसार होता जायगा, एक व्यक्ति को समत्व योगी के लक्ष्य तक पहुंचने में उतनी ही सुविधा और सरलता बढ़ती जायगी, क्योंकि सांसारिक जीवन में बढ़ती हुई समता निश्चित रूप से उन मानवीय गुणों को प्राणवान बनायगी जो एक आत्मा को सभी आत्माओं के साथ समान सहृदयता से जोड़ते हैं। तो इस रूप में समानता किसी एक ही व्यक्ति, वर्ग अथवा समूह का ही साध्य नहीं, बल्कि समस्त संसार का साध्य है । और समता साधन भी है समता ही के व्यापक साध्य को अवाप्त करने का। वही साधन है एक व्यक्ति या आत्मा के लिये तो वही साधन है समूह, समाज या सकल विश्व के लिये भी । समता, समत्व अथवा साम्यवाद एक विचार भी है तो कृति भी है और कृति है तो साधन है। साधन इस कारण कि समता आचरण का सोपान भी है । समता के आचरण की विभिन्न सीढ़ियां है जिन पर क्रमिक रूप से आरोहण करते हुए समता के शिखर तक पहुंचा जा सकता है। अतः समता की साधना समग्र जीवन की साधना है । ४२५
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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