SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 444
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ और उसकी इन्द्रियों में बेचैनी और बेहोशी फैल जाती है इसलिये इन दोनों शत्रुओं के प्रति आत्मा की पूरी सावधानी होनी चाहिये। आत्मा के पास इन दोनों शत्रुओं को परास्त कर देने के लिये रत्नत्रय का सुदर्शन चक्र है। सम्यक्त्व के जगमगाते प्रकाश के सामने मिथ्यात्व का अंधेरा टिक नहीं सकता है और ज्यों ही सम्यक्त्व का प्रकाश फैल जाता है, इस आत्मा के समक्ष सदा सद् संग्राम का पूरा दृश्य अति स्पष्ट हो जाता है और उसका सुदर्शन चक्र भी सक्रिय बन जाता है। वह सम्यक् ज्ञान से सम्यक् दर्शन एवं सम्यक् चारित्र को पूर्ण रूप से जब मोहनीय कर्म पर प्रहार करती है तो अष्ट कर्म का यह सेनापति बौखला उठता है। वह बार बार आत्मा पर अपने प्रहार करता है, किन्तु बार बार आत्मा का सुदर्शन चक्र मोहनीय कर्म को नीचे पटकता रहता है और तब एक ही झटके में उसका शिरच्छेद कर देता है। मोहनीय कर्म के विनाश के साथ ही आत्मा की शक्ति अनन्त गुना बढ़ जाती है उसका सम्यक् चारित्र सर्व विरति साधु-आचार के रूप में उत्कृष्टता के नये-नये सोपानों पर आरूढ़ होता रहता है। रल-त्रय की साधना श्रेष्ठतर होती जाती है और शेष कर्म शत्रु भी नष्ट होते चले जाते हैं। तब वह शुभ दिवस और समय भी आता है, जब पहले चारों घाती कर्म पूर्णतः नष्ट हो जाते हैं तथा आत्मा का वीतराग भाव जगमगा उठता है। फिर उसके लिये शेष संग्राम विशेष पुरुषार्थ साध्य नही रहता। चारों अघाती कर्मों का नाश करके वह सिद्ध गति की ओर प्रयाण कर देती है और इस प्रकार सदासद् संग्राम में पूर्ण विजय प्राप्त कर लेती है। तब आत्मा स्व-भाव तथा स्व-धर्म में अवस्थित होकर विजेता बन जाती है। . वर्तमान परिस्थितियों में जबकि मेरे सामने सद् वृत्तियों तथा प्रवृतियों एवं असद् वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों की चतुरंगिणी सेनाएं आमने सामने खड़ी हैं। और ज्ञाता-विज्ञाता एवं जागृत दृष्टा बना मैं इस दृश्य को देखता हूं तो मुझे दृढ़ निश्चय करना होता है कि इस संग्राम में चाहे जो हो—मुझे अपनी अन्तिम विजय प्राप्त करनी ही है। सारी रणस्थली में मैं ही योद्धा हूं-मुझे ही लड़ना है अपनी असद् वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों से अपनी सद् वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों की सहायता लेकर । यह ऐसा समय है जब मैं कई बार अर्जुन की तरह घबराता हूं कि मैं कैसे लड़ सकूँगा उन मनोज्ञ विषयों के विरुद्ध जिनसे मेरा मन और मेरी इन्द्रियां सुखाभास लेती रही हैं ? कैसे लड़ सकूँगा मैं अपने ही विद्रोही मन और इन्द्रियों से जो मनोज्ञ शब्द, दृश्य, गंध, रस और स्पर्श के घेरों में बार-बार दौड़े हुए चले जाते हैं ? किन्तु मेरी आत्मा तब श्रीकृष्ण बन जायगी और अर्जुन की नपुंसकता को दूर करेगी, उसमें योद्धा भाव को जगायगी और उसे अपने रन-त्रय का सुदर्शन चक्र चलाने के लिये उत्साहरत बना देगी। यह सब कुछ मेरी ही आत्मा को करना होगा। आत्मा ही सोने लगेगी तो आत्मा ही अपने को जगायगी। आत्मा ही आत्मा से लड़ेगी और आत्मा ही आत्मा को समझायगी। अन्ततोगत्वा यह आत्मा ही अपने द्वन्द्वों को समाप्त करेगी और विजेता बन कर अपने उत्थान के ऊंचे से ऊंचे आयामों को अवाप्त करेगी। अन्तिम विजय मेरी होगी मेरी यह निश्चित धारणा बन चुकी है कि इस सदासद् संग्राम में अन्तिम विजय मेरी ही होगी। मैं दृढ़ चेता होकर अपने नये कर्म बंधन को रोकूगा, पूर्वार्जित कर्मों को तपस्या की अग्नि में भस्म कर दूंगा और अपने आत्म स्वरूप को कुन्दन बना लूंगा । गुणस्थानों के सोपान रूपी कसौटियों पर आत्मा की शुद्धता की जांच मैं हर समय करता रहूंगा और ऊर्ध्वगामी बना रहूंगा। मैं अपने दृढ़ ४१६
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy