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________________ कर लिया है तथा जो राग द्वेष को जीत कर वीतराग व अन्तराय रूप बाधा को जीत कर अनन्त वीर्यवन्त हो गये हैं। वे महापुरुष अरिहन्त होते हैं अपने भीतर के अरियों-शत्रुओं को जिन्होंने नष्ट कर दिया है। उनकी आत्मा तब सिद्धि के योग्य हो जाती है तथा अपने पूर्ण ज्ञान के प्रकाश में वे संसार की सभी आत्माओं को आत्म विकास का मार्ग दिखाते हैं। दूसरा सिद्ध पद भी गुणवत्ता पर आधारित है कि वे संसार के भव चक्र को समाप्त करके मुक्तात्मा बन जाते हैं। तीर्थंकर की विद्यमानता न होने पर संघ संचालन का भार आचार्य उठाते है अतः उनका तीसरा पद है। ज्ञान साधना और ज्ञान दान का महत्त्वपूर्ण कार्य करने वालों का चौथा उपाध्याय का पद है तो पांचवा पद संसार त्याग करके सर्व विरति एवं निग्रंथ बनने वाले साधु का है जो अपना सम्पूर्ण जीवन महाव्रतों के पूर्ण पालन के साथ स्व-पर कल्याण में नियोजित कर देता है। नमस्कार योग्य पद साधु अवस्था से ही प्रारंभ होता है और सामान्यतया साधु, उपाध्याय, आचार्य तथा अरिहन्त के चार पद साधु जीवन से ही सम्बन्धित होते हैं और साध्वाचार की उत्कृष्टता ही दिखाते हैं। सिद्ध अवस्था भी एक दृष्टि से श्रेष्ठ साधु जीवन की उच्चतम श्रेष्ठता की ही उपसंहार रूप होती है। यह समग्र क्रम आत्मा के गुण-विकास का ही क्रम है। आत्मा किस नाम धारी व्यक्ति के शरीर में अवस्थित है—इससे उन आत्मिक गुणों तथा उनकी प्राप्ति को विशेष महत्त्व दिया गया है जिनका विकास आत्मा को अपनी उन्नति के विभिन्न चरणों में ऊर्ध्वगामी बनाता है। आत्मा को ऐसी निरन्तर गतिशील ऊर्ध्वगामिता प्राप्त हो—यही परम लक्ष्य है क्योंकि इसी का चरम बिन्दु मोक्ष प्राप्ति के रूप में प्रतिफलित होता है। सदासद् संग्राम यह सब मैंने एक अपेक्षा से कहा है कि मैं रत्नत्रयाराधक मुनि हूं, ज्ञानसाधक उपाध्याय हूं, अनुशासक आचार्य हूं, वीतरागी अरिहन्त हूं, अथवा शुद्ध, बुद्ध, सिद्ध या अनश्वर ओऽम् हूं, क्योंकि ऐसा कहने और विचारने में 'सोहऽम्' की अनुभूति होती है तथा विकासोन्मुख आत्मा अपने परम व चरम साध्य का निर्धारण करती है। किन्तु इन उच्च पदों की उपलब्धियां मुझे प्राप्त हो सकेगी एक संग्राम जीत लेने के बाद । यह संग्राम है अपनी ही आत्मा की असद् वृत्ति तथा प्रवृत्तियों का अपनी ही आत्मा की सद् वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों के बीच में और यह आत्मा ही योद्धा है। इसे सदासद् संग्राम कह सकते हैं। आठ कर्मों के रूप में असद् वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों की सेना एक ओर खड़ी है और दूसरी ओर सद् वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों की सेना जो एक दूसरे के साथ लड़ रही है तथा इस लड़ाई की प्रयोजक है स्वयं आत्मा, मन और उसकी इन्द्रियां । आत्मा की सुप्तावस्था और जागृतावस्था का तारतम्य ही इस संग्राम में हार और जीत का निर्णय करने वाला है। यदि सुप्तावस्था घटती जाती है और आत्म-जागृति अभिवृद्ध होती जाती है तो यों समझिये कि असद् वृत्तियां तथा प्रवृत्तियां मिटती जाती हैं और उनके स्थान पर सद् वृत्तियां तथा प्रवृत्तियां आत्मा का सुरक्षा कवच बना लेती है जिस पर फिर असद् वृत्तियों तथा प्रवृतियों का बलप्रयोग व्यर्थ हो जाता है। एक एक करके असद् वृत्तियां तथा प्रवृतियां पराजय का मुख देखती हुई नष्ट होती जाती है। तब इस संग्राम में आत्मा की सद् वृत्तियां तथा प्रवृत्तियाँ विजय की ओर अग्रसर बन जाती हैं। यह सदासद् संग्राम आत्मा की आन्तरिकता में प्रतिपल चल रहा है -एक पल के लिये भी वह रुकता नहीं है। असद् वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों की सेना में मिथ्यात्व और मोहनीय बहुत जोरदार होते है। ये आत्मा के शत्रु ऐसा मारक प्रहार करते हैं कि आत्मा तिलमिला उठती है—उसके मन ४१८
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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