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________________ अनुभव भी वहीं जन्म लेता है। यह तथ्य मुझे हृदयंगम कर लेना चाहिये और इसकी गांठ बाँध लेनी चाहिये कि बाहर के पदार्थ और व्यक्ति अशान्ति और दुःख पैदा करने में निमित्त मात्र होते हैं -वे स्वयं मेरे हृदय में अशान्ति और दुःख पैदा नहीं कर सकते हैं। सांसारिक सुख सुविधाओं को प्राप्त करने के सम्बन्ध में अनन्त इच्छाएं और कामनाएं जब तक भड़की हुई रहती हैं, उस हृदय में शान्ति और सुख की क्षीण प्रकाश रेखा भी नहीं चमकती। मनुष्य का सामान्यतया यह स्वभाव (विभाव) देखा जाता है कि बाह्य पदार्थों की वृष्टि से उसे जो कुछ प्राप्त होता है, उससे वह सन्तुष्ट नही रहता तथा अपनी नजरें ऊपर रखता हुआ वह अप्राप्त की चिन्ता करता जाता है। यह दीन हीन मनुष्यों पर ही लागू नहीं होता बल्कि अच्छे सम्पन्न लोगों में भी यह वृत्ति बहुलता से देखी जाती है। इसी वृत्ति को तृष्णा कहते हैं। तृष्णाग्रस्त होकर मनुष्य अपने प्राप्त सुख को भी सुख मानकर नहीं भोगता है और अधिकतम प्राप्त करने के भारी तनावों के बीच दुःखभरी जिन्दगी जीता है। तब उसके मन-मानस में अशान्ति ही उमड़ती-घुमड़ती है और अप्राप्त की चिन्ताग्रस्तता के कारण दुःख का अनुभाव बढ़कर गंभीर होता रहता है। इसके विपरीत यदि अपनी आन्तरिकता को सन्तोष के शीतल जल से शान्त बनालें और अपनी नजर नीचे की तरफ घुमाते रहें तो जो कुछ प्राप्त है, उसके सुख को भी भोगा जा सकेगा तथा हृदय को भी शान्त बनाया जा सकेगा। मैं मानता हूं कि शान्ति और सुख के अनुभव का विषय मुख्यतः अपनी ही अवधारणाओं पर अवलम्बित रहता है। इसके लिये इच्छाओं और कामनाओं का निरोध ही करणीय पुरुषार्थ होता है। तृष्णा पर अंकुश लगाते ही कई तनाव एक साथ समाप्त हो जाते हैं। इच्छा निरोध का धीरे-धीरे ही सही, किन्तु क्रमिक विकास मैं जानता हूं कि हृदय को सन्तुलित बना देगा और तब शान्ति एवं सुख का लाभ लेना अपने ही वश की बात हो जायगी। बाहर के मनोज्ञ पदार्थ मिलें या चले जाय और अमनोज्ञ पदार्थों का दर्योग हो जाय. तब भी परतत्व मेरे निजत्व को किसी भी रूप में प्रभावित नहीं कर पायेंगे और न ही मेरे हृदय में अशान्ति की ज्वाला सुलगा सकेंगे या दुःख की पीड़ा पैदा कर सकेंगे। यही संयम की साधना का प्रारंभ होगा। ज्यों-ज्यों मेरा संयम सुदृढ़ एवं सुस्थिर बनता जायगा, त्यों-त्यों मेरी शान्ति भी अधिकाधिक शीतल और सुख भी अधिकाधिक आह्लादकारी बनता जायगा। यही नहीं, उत्तरोत्तर आत्म विकास के साथ मेरी शान्ति और मेरे सुख में स्थायित्व भी आता जायगा। क्षण-क्षण शान्ति और अशान्ति के पलड़ों में मेरा झूलना भी बंध हो जायगा। ___ संयम और तप की आराधना के साथ कर्म बंध से ज्यों-ज्यों मुक्ति मिलती जायगी और ज्यों-ज्यों मेरी आत्मा ऊपर से ऊपर के गुणस्थान के सोपानों पर आरूढ़ होती जायगी कि अन्ततोगत्वा मुझे अमिट शान्ति और अक्षय सुख की परम उपलब्धि भी हो जायगी। तब शान्ति और सुख का रूप अव्याबाध हो जायगा। आठवां सूत्र और मेरा संकल्प वीतराग देवों द्वारा प्रदत्त ज्ञान के प्रकाश में मैं अनुभव करूंगा कि मेरा आत्म-समीक्षण एवं विश्व कल्याण का चरण कितना पुष्ट और स्पष्ट हो गया है, क्योंकि ज्ञान के ही प्रकाश में मैं अपने साध्य को समझकर तदनुकूल साधनों का अभिग्रहण कर सकूँगा। मैं जब अपना साध्य अमिट शान्ति ३८४
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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