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________________ भीतर प्रकाश, बाहर प्रकाश मैं जो ज्ञानपुंज और समत्व योगी बनने का अभिलाषी हूं, मैं जानता हूं कि सिर मुंडा लेने से कोई श्रमण नहीं होता, ओंकार का जप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, मौन रखने मात्र से कोई मनि नहीं होता और वल्कल धारण करने से कोई तापस नहीं होता। वास्तव में समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तपस्या से तापस कहलाता है। कर्म से ही कोई ब्राह्मण । है, कर्म से ही क्षत्रिय, कर्म से ही वैश्य तथा कर्म से ही शूद्र होता है। जो भोगों में आसक्त है, वह कर्मों में लिप्त होता है और जो अभोगी है—भोगासक्त नहीं है, वह कर्मों से लिप्त नहीं होता। भोगासक्त संसार में परिभ्रमण करता है और भोगों में अनासक्त ही संसार से मुक्त होता है। इसलिये सर्वप्रथम ज्ञान साधना आवश्यक है क्योंकि स्वाध्याय करते रहने से समस्त दुःखों से मुक्ति मिलती है और हृदय के समस्त भाव प्रकाशयुक्त बनते हैं। भीतर प्रकाश और बाहर प्रकाश तभी प्रसारित होता है जब वस्तु स्वरूप का यथार्थ रूप जाना जाता है जो सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र से संभव होता है। सम्यक्त्व के अभाव में चारित्र नहीं हो सकता और ज्ञान से भावों का सम्यक् बोध होता है, दर्शन से श्रद्धा होती है, चारित्र से कर्मों का निरोध होता है तथा तप से आत्म-स्वरूप निर्मल बन जाता है। यह निर्मलता ही भीतर, बाहर और सर्वत्र प्रकाश ही प्रकाश प्रसारित कर देती है। __मैं भावना भाता हूं कि मैं भी मुनिजनों के हृदय के समान अपने हृदय को बनाऊं जो शरद्कालीन नदी के जल की तरह निर्मल होता है। मैं भी मुनियों के आत्म स्वातंत्र्य को प्राप्त करूं जो पक्षियों की तरह बन्धनों से विमुक्त होता है तथा मैं भी मुनियों के समभाव के समान अपनी आन्तरिकता में समभाव का सृजन करूं जो पृथ्वी की तरह समस्त सुखों व दुःखों को सहन करता है। मैं मुनि धर्म में उत्कृष्टता प्राप्त करता हूं तभी मुक्ति पथ पर अग्रगामी बनता हूं और निर्मल प्रकाश की दिव्याभा को पहिचान व प्राप्त कर सकता हूं। अमिट शान्ति और अक्षयसुख मैं और मेरी तरह प्रत्येक प्राणी सदा ही शान्ति और सुख की अभिलाषा रखता है, किन्तु समस्या वहां यही बनी रहती है कि अपने मन, वचन तथा काया के योग उसके अनुसार नहीं बनाये जाते हैं। बबूल बोते रह कर आम का फल पाने की अभिलाषा रखते हैं, जिसके कारण अभिलाषा की पूर्ति नहीं होती है। यह मूल में ही भूल होती रहती है अतः चाहने पर भी शान्ति नहीं मिलती, सुख प्राप्त नहीं होता। इसलिये सबसे पहले इस अज्ञान को दूर करके यह सम्यक् प्रतीति लेनी होगी कि क्या करने से और क्या नहीं करने से शान्ति मिलेगी और सुख प्राप्त होगा? यह सम्यक् प्रतीति ही आस्था तथा आचरण के चरणों को सुदृढ़ व स्थिर बनाकर अमिट शान्ति और अक्षय सुख का मार्ग दिखाएगी। मुझे अमिट शान्ति और अक्षय सुख मिले या यों कहूं कि पहले सच्ची शान्ति और सच्चे सुख का तनिक भी रसास्वादन कर सकू, उसके लिये अशान्ति और दुःख के कारणों की खोज करनी होगी क्योंकि एक बार भी यदि सच्ची शान्ति और सच्चे सुख के रसानन्द का मैं अनुभव कर लूंगा तो फिर उस मार्ग पर चलने का मेरा उत्साह जाग उठेगा। यह खोज अपने भीतर ही करनी होगी, कारण, शान्ति भी वहीं से प्रवाहित होती है तथा अशान्ति भी वहीं से फूटती है और सुख-दुःख का ३८३
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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