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________________ में मैं अविरति के कारण को दूर करूंगा। मैं जान जाऊंगा कि कोरा ज्ञान पंगु होता है और बिना आस्था के वह अज्ञान ही होता है अतः आचरण के धरातल पर मेरे चरण जब चलेंगे तो मेरा आस्थामय ज्ञान अपनी सार्थकता ग्रहण करेगा। आचरण का पहला चरण होता है व्रताराधन याने त्याग का शुभ श्री गणेश । अविरति की अवस्था टूटेगी और मैं व्रतों की उच्चतर श्रेणियों पर चढ़ता रहूंगा। देश विरति याने आंशिक संयम से मैं सर्वविरति अर्थात् साधु जीवन में प्रवेश करूंगा और व्रतों की कठोर आराधना करूंगा। व्रतों की कठोर आराधना से मेरा प्रमाद टूटेगा। यह प्रमाद अपनी जड़ें जमाता है सांसारिक काम भोगों की वासनाओं की भूमि पर, अतः मैं इस भूमि को ही खोदने लगूंगा। यह भूमि मेरी आत्मा के सिवाय अन्य भूमि नहीं है। मैं मेरे संकल्पों-विकल्पों में से विषयेच्छाओं का अन्त करता चलूंगा। मैं अपने मन और अपनी इन्द्रियों को काम भोगों के रास्ते से पूरी तरह हटा लूंगा तो फिर प्रमाद किस बात का रहेगा? मैं इस आप्तवचन को सदा स्मृति में रखूगा कि एक समय (काल का सबसे छोटा भाग) के लिये भी प्रमाद नहीं किया जाय, क्योंकि प्रमाद ही पाप के रास्ते पर ढकेलता है। प्रमाद के घटते रहने से मेरी आत्मजागृति निरन्तर बनी रह सकेगी। तभी मुझे अनुभूति होगी कि मुनि किस प्रकार सोते हुए भी जागृत रहते हैं ? मैं मानता हूं कि कषाय समाप्ति का काम सबसे ज्यादा कठिन होता है और इसी विचार से कहा गया है कि कषाय से मुक्ति ही वास्तव में मुक्ति होती है। मुझे इस तथ्य का भलीभांति ज्ञान हो गया है कि यह कषाय आत्म-स्वरूप का पल्ला बड़ी मुश्किल से छोड़ती है कषाय के चारों विकारी तत्त्वों का प्रहार बड़ा घातक होता है। क्रोध, मान, माया और लोभ- साधु अवस्था में भी पीछे पड़े रहते हैं। बार बार नियंत्रित करते रहने पर भी ये फिर फिर भड़क उठते हैं और आत्म स्वरूप पर कालिख का लेप कर देते हैं। सांसारिक क्षेत्रों में तो इनका रूप विकराल बना ही रहता है, लेकिन धार्मिक क्षेत्र में भी यदि इनके रूप को गहराई से समझ कर इन पर अंकुश लगाया हुआ न रखा जाय तो ये पलों में संयमी जीवन की अमूल्य उपलब्धियों को नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं। कठिन तप का आराधक तपस्वी भी क्रोध के चक्कर में आ जाता है तो संयम से प्रदीप्त साधु भी मान की मार खा जाता है। चाहे धार्मिक अनुष्ठानों पर ही आचरण किया जा रहा हो, माया से अपना वर्चस्व दिखाने की दुर्भावना जाग उठती है तो लोभ आत्मोत्थान की कई सीढ़ियों तक प्रहार कर सकता है। इस दृष्टि से मैं अपने आपको पूर्ण सजग बनाता हूं और इस प्रहारक कषाय को दूर करने में सन्नद्ध रहना चाहता हूं। यही सावधानी मैं अपने योगों के प्रति भी कायम करना चाहता हूं। ये योग हैं, मेरे अपने मन के विचार, मेरे अपने वचन और मेरे अपने कार्य ये तीनों मन, वचन और काया इन योगों के माध्यम हैं। जो कुछ भी मैं सोचता हूं तो वैसा ही बोलता हूं और वैसे ही कार्य करता हूं। मन, वाणी और कर्म में ही मेरे आत्म स्वरूप की झलक देखी जा सकती है। ये योग ही अशुभ बने रहकर मुझे नीचे गिराते हैं तो ये योग ही शुभता धारण करके मुझे ऊपर चढ़ाते हैं, योगों की अशुद्धता और शुद्धता पल पल आत्मा के पलड़ों को ऊंचा नीचा करती रहती है जिसके कारण इनके प्रति सावधानी परम आवश्यक है कि ये योग एक ही ऊर्ध्वगामी दिशा की ओर प्रवाहित हों। यह तभी संभव हो सकता है जब मेरी आत्मा अपनी नियंत्रण शक्ति को स्वकेन्द्रित बना ले। ३७८
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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