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________________ इतने घनीभूत हो जाते हैं कि वे उनके शरीर के दो तिहाई भाग में ही समा जाते हैं। उक्त कर्मों का क्षय होते ही वे उसी एक समय में ऋजुगति से ऊपर की ओर सिद्ध क्षेत्र में चले जाते हैं। व अटल अवगाहना रूप से लोकाग्र में स्थिर हो जाते हैं। उसके आगे किसी आत्मा या पुद्गल की गति नहीं होती है क्योंकि आगे गति में सहायक धर्मास्तिकाय नहीं होती। कर्म मल के पूर्णतः हट जाने पर शुद्ध आत्मा की ऊर्ध्व गति इस बिन्दु पर आकर अवस्थित हो जाती है। समत्व योग की अवाप्ति मेरा चिन्तन अतीव गूढ़ और गंभीर हो जाता है जब मैं आत्म स्वरूप के इन चौदह गुणस्थानों की सूक्ष्मताओं पर बहुत गहराई से विचार करता हूं, क्योंकि यह मुझे ही निश्चित करना होता है कि मैं किस गुणस्थान में वर्तता रहता हूं। गुणस्थानों में ऊपर चढ़ना या नीचे गिरना मेरी अपनी भाव श्रेणियों की उच्चता या निम्नता पर अवलम्बित रहता है। अतः मैं ही अपनी भाव श्रेणी को परखू, उसकी अशुभता मिटाता रहूं और ऊपर चढ़ता रहूं—यह मेरा ही पुरुषार्थ होता है। यह मैं जान गया हूं कि मेरा ही सम्यक् ज्ञान और मेरी ही सम्यक् आस्था मुझे मेरे सम्यक् चारित्र में मेरी आत्मा को अवस्थित बनायगी और इस अवस्था को ज्यों-ज्यों मैं ऊर्ध्वगामी बनाता रहूंगा, मेरा समत्व योग भी समुन्नत बनता रहेगा। तो मैं समत्व योग की अवाप्ति करलूं – यह पूरी तरह से मेरे ही ऊपर निर्भर है। इसलिये मुझे अपने दायित्व को समझ कर दृढ़ संकल्प करना होगा कि मैं अपनी विषय वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों के मूल कारणों को समझू, उन्हें अपनी शुभता व संयमितता से दूर हटाऊं एवं अपने आत्मोत्थान की बागडोर अपने हाथ में मजबूती से सम्हाल लूं। विषमता जितने अंशों में मिटती जायगी, उतने अंशों में मैं समता की अवाप्ति कर जाऊंगा। ___ मैं अपने ध्यान में लूं कि मेरी सम्पूर्ण विषमता किस प्रकार के काले विचारों से रंगी हुई है? मैं इसके मूल में पांच कारण देखता हूं-ये हैं -मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । मिथ्यात्व सबसे घटाटोप अंधकार की अवस्था होती है क्योंकि वहां आचरण और आस्था की बात तो दूर -सम्यक् ज्ञान के अस्तित्व की ही स्थिति नहीं होती है। अतः तब सर्वथा विषमता का ही साम्राज्य होता है। इस कारण मैं सबसे पहले इस घटाटोप अंधकार में सम्यक्त्व की प्रकाश किरणें खोजूं और उस दिशा में आगे बढ़ते हुए मिथ्यात्व की अटवीं को पार करूं। मैं प्रतिक्षण जागृत भी रहूं कि मेरे कदम कहीं भी पीछे नहीं हटें क्योंकि बार बार ऐसे अवसर आवेंगे जब मेरा ही मन और मेरी ही इन्द्रियाँ सांसारिकता के मोह में उलझ कर मुझे बलात् पीछे धकेलें । मुझे उनका निरोध करना होगा जिसके लिये मेरी अपनी संकल्प शक्ति सुदृढ़ बननी चाहिये। उदंड सेवकों को जिस प्राभाविकता एवं कुशलता से अपने नियंत्रण में रखना होता है, अपनी आत्मा के इन सेवकों को वश में रखने के लिये उससे भी अधिक एकाग्र प्राभाविकता एवं सतत जागृत कुशलता की आवश्यकता होगी। जब मैं विषमता के इस पहले कारण को कमजोर बना दूंगा तो मेरे समक्ष प्रकाश फैलता जायगा और उस प्रकाश में मेरा आत्म विकास का भगीरथ कार्य भी सरल होता जायगा, क्योंकि मैं अपनी आन्तरिकता का दृष्टा बन जाऊंगा और आन्तरिकता को विकृत बनाने वाले विषम तत्त्वों को स्पष्टतः देख पाऊंगा। अंधेरे में कोई भी शत्र कहीं भी वार कर सकता है और उसका प्रतिकार कठिन हो जाता है लेकिन सम्यक्त्व का प्रकाश मेरा सबसे बड़ा सहायक हो जायगा और इसी प्रकाश ३७७
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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