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________________ गिर कर चौथे गुणस्थान को प्राप्त कर लेती है क्योंकि अनुत्तर विमानवासी देवों में चौथा गुणस्थान ही होता है। वहां वह आत्मा उस गुणस्थान की उदय-उदीरणा आदि शुरू कर देती है। किन्तु जिस आत्मा के आयुष्य के शेष रहते इस गुणस्थान का समय पूरा हो जाता है वह आरोह क्रम से गिरती है अर्थात् इस गुणस्थान तक चढ़ते समय उस आत्मा ने जिन-जिन गुणस्थानों को जिस क्रम से प्राप्त किया था या जिन कर्म प्रकृतियों का जिस क्रम से उपशम करके वह ऊपर चढ़ी थी, वे सब प्रकृतियां उसी क्रम से उदय में आती हैं। इस प्रकार गिरने वाली कोई आत्मा बीच के गुण स्थानों में रुक सकती है। तो कोई-कोई पहले गुणस्थान तक गिर जाती है। क्षपक श्रेणी के बिना कोई आत्मा मोक्ष में नहीं पहुंच सकती है और इस गुणस्थान में उपशम श्रेणी वाली आत्मा ही आती है, इस कारण वह अवश्य गिरती है। एक जन्म में दो बार से अधिक उपशम श्रेणी नहीं की जा सकती है और क्षपक श्रेणी तो एक बार ही होती है। जिस आत्मा ने एक बार उपशम श्रेणी की है, वह उसी जन्म में क्षपक श्रेणी द्वारा मोक्ष प्राप्त कर सकती है किन्तु जो दो बार उपशम श्रेणी कर चुकी है, वह फिर उसी जन्म में क्षपक श्रेणी नहीं कर सकती। अन्य सिद्धान्त के अनुसार एक जन्म में एक ही श्रेणी की जा सकती है इसलिये जिसने एक बार उपशम श्रेणी की है, वह फिर उसी जन्म में क्षपक श्रेणी नहीं कर सकती। उपशम श्रेणी के आरंभ का क्रम इस प्रकार है –चौथे, पांचवें, छठे और सातवें गुणस्थान में से किसी भी गुणस्थान में वर्तमान आत्मा पहले अनंतानुबंधी कषायों का उपशम करती है। इसके बाद अन्तर्मुहूर्त में एक साथ दर्शन मोहनीय कर्म की तीनों प्रकृतियों का उपशम करती है। तदनन्तर वह छठे सातवें में सैंकड़ों बार आती जाती है, फिर आठवें गुणस्थान में होकर नवें गुणस्थान को प्राप्त करती है और नवें गुणस्थान में चारित्र मोहनीय कर्म की शेष प्रकृतियों की उपशम शुरू करती है। सबसे पहले वह नपुंसक वेद का उपशम करती है, फिर स्त्री वेद का। हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, पुरुष वेद, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण के क्रोध, मान, माया, लोभ तथा संज्वलन के क्रोध, मान और माया—इन सब प्रकृतियों का उपशम वह नवें गुणस्थान के अन्त तक करती है। संज्वलन लोभ का उपशम वह दसवें गुणस्थान में करती है। (१२) क्षीणकषायछद्मस्थ वीतराग गुणस्थान-जो आत्मा मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय कर देती है किन्त शेष तीनों घाती कर्म अभी विद्यमान हैं उसे क्षीण कषाय छद्मस्थ वीतराग कहते हैं और उस आत्मा का गुणस्थान यह बारहवां होता है। इस गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है और इसमें क्षपक श्रेणी वाली आत्माएं ही आ सकती हैं। क्षपक श्रेणी का कर्म इस प्रकार है—जो आत्मा क्षपक श्रेणी वाली होती है वह चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक किसी भी गुणस्थान में सबसे पहिले अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ का एक साथ क्षय करती है। उसके बाद वह अनन्तानबंधी कषाय के शेष अनन्तवें भाग को मिथ्यात्व में डाल कर दोनों का एक साथ क्षय करती है। आठवें गुणस्थान में वह अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षय प्रारंभ करती है। इन आठ प्रकृतियों का सर्वथा क्षय होने से पहिले ही नवें गुणस्थान को प्रारंभ कर देती है और उसी समय इन सोलह प्रकृतियों का क्षय कर देती है—निद्रा, निन्द्रा प्रचला, स्त्यानगृद्धि, नरक गति, नरकानुपूर्वी, तिर्यंच गति, तिर्यंचानुपूर्वी, एकेन्द्रिय जाति नाम कर्म, द्वीन्द्रिय जाति नाम कर्म, त्रीन्द्रिय जाति नाम कर्म, चतुरिन्द्रिय जाति नाम कर्म, आतप, उधोत, स्थावर, सूक्ष्म, तथा साधारण । तदनन्तर अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ के अवशिष्ट भाग का क्षय करती है। फिर क्रमशः नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्य आदि छः, ३७५
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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