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________________ उनमें पहले बंधी हुई अशुभ प्रकृतियों का संक्रमण कर देना । अपूर्व स्थिति बंध- पहले की अपेक्षा अत्यन्त अल्प स्थिति के कर्मों का बांधना । जैसे राज्य पाने की योग्यता मात्र से राजकुमार राजा कहा जाता है, वैसे ही आठवें गुणस्थान में रही हुई आत्मा चारित्र मोहनीय के उपशमन या क्षपण के योग्य होने से उपशयक या क्षपक कहलाती है । चारित्र मोहनीय के उपशमन या क्षपण का प्रारंभ तो नवे गुणस्थान में ही होता है, आठवें गुणस्थान में तो केवल उसकी योग्यता होती है। (६) अनिवृति बादर सम्पराय गुणस्थान – केवल संज्वलन क्रोध, मान, माया रूप कषाय से जिस आत्मा की निवृत्ति नहीं हुई हो, वैसी आत्मा की उस अवस्था विशेष को अनिवृत्ति बादर सम्पराय गुणस्थान कहते हैं । इस गुणस्थान की स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है। एक अन्तर्मुहूर्त के जितने समय होते हैं, उतने ही अध्यवसाय स्थान इस गुणस्थान में माने जाते हैं क्योंकि इसमें जितने जीव समसमयवर्ती रहते हैं उन सबके अध्यवसाय एक समान शुद्धि वाले होते हैं । इस गुणस्थान के अन्तिम समय तक पूर्व पूर्व समय के अध्यवसाय स्थान से उत्तर उत्तर समय के अध्यवसाय स्थान को अनन्तगुना विशुद्ध समझना चाहिये। आठवें गुणस्थान की अपेक्षा इस गुणस्थान की यही विशेषता है कि उस गुणस्थान में तो समान समयवर्ती त्रैकालिक अनन्त जीवों के अध्यवसाय शुद्धि के तरतमभाव से असंख्यात वर्गों में विभाजित किये जा सकते हैं जबकि इसमें समसमयवर्ती त्रैकालिक अनन्त जीवों के अध्यवसायों का समान बुद्धि के कारण एक ही वर्ग हो सकता है। कषाय संक्लेश की कमी के साथ साथ परिणामों की शुद्धि बढ़ती जाती है। इस गुणस्थान में विशुद्धि इतनी अधिक हो जाती है कि उसके अध्यवसायों की भिन्नता आठवें गुण स्थान की भिन्नताओं से बहुत कम हो जाती है। दसवें गुणस्थान की अपेक्षा इस गुणस्थान में स्थूल कषाय उदय में आता है तथा नवें गुणस्थान के समसमयवर्ती जीवों के परिणामों में निवृत्ति नहीं होती। इस गुणस्थान को प्राप्त करने वाली आत्माएं दो प्रकार की होती हैं— एक उपशमक और दूसरी क्षपक । चारित्र मोहनीय कर्म को उपशम करने वाली उपशमक तथा उस का क्षय करने वाली क्षपक । (१०) सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान – इस गुणस्थान में सम्पराय अर्थात् लोभ कषाय के सूक्ष्म खंडों का ही उदय रहता है और आत्माएं भी उपशमक और क्षपक दोनों प्रकार की होती हैं। संज्वलन लोभ कषाय के सिवाय अन्य कषायों का उपशम या क्षय तो पहले ही हो जाता है, अतः इस गुणस्थान में आत्मा लोभ कषाय का उपशम या क्षय करती है और इसी दृष्टि से वे उपशमक या क्षपक कहलाती है । (११) उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान - जिनकी कषाय उपशान्त हो गई हैं, जिनको राग अर्थात् माया और लोभ का भी बिल्कुल उदय नहीं है और जिनको छद्म (आवरण भूत घाती कर्म) लगे हुए हैं, वे आत्माएं उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ कहलाती हैं और उनका गुणस्थान यह ग्यारहवां गुणस्थान होता है जिसकी स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण मानी गई है। इस गुणस्थान में वर्तमान आत्मा आगे के गुणस्थानों को प्राप्त करने में समर्थ नहीं होती हैं, क्योंकि जो आत्मा क्षपक श्रेणी पूर्ण करती है, वही आगे के गुणस्थान में जा सकती से है । इस गुणस्थान वाली आत्मा नियम से उपशम श्रेणी वाली ही होती है, अतः वह इस गुणस्थान पतित हो जाती है। इस गुणस्थान का समय पूर्ण होने से पहिले ही जो आत्मा आयुष्य के क्षय होने से काल कर जाती है, वह अनुत्तर विमान में उत्त्पन्न होती है। उस समय वह ग्यारहवें गुणस्थान से ३७४
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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