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________________ श्रुतज्ञान वाली आत्मा संसार में रहकर भी आत्म स्वरूप को नहीं भुलाती है। ज्ञान इस दृष्टि से आत्म विकास का प्रकाश स्तंभ होता है। तत्त्वार्थ श्रद्धान् को सम्यक् दर्शन कहा है जो मोहनीय कर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से उत्पन्न होता है। सम्यक् दर्शन हो जाने पर मति आदि अज्ञान भी सम्यक् ज्ञान रूप में परिणत हो जाते हैं। सम्यक् दर्शन हो जाने पर वस्तु के वास्तविक स्वरूप को जानने का प्रयल किया जाता है, शरीर को आत्मा से अलग समझा जाता है तथा सांसारिक भोगों को दुःखमय एवं निवृत्ति को सुखमय माना जाता है। सम्यक् दर्शन से आत्मा में ये गुण प्रकट होते हैं—(१) प्रंशम (२) संवेग (३) निर्वेद (४) अनुकम्पा एवं (५) आस्तिक्य। मैं सम्यक् दर्शन की शुभ भावनाओं से जब अभिभूत होता हूं तो मेरी आस्था दृढ़तर बन जाती है कि जिन्होंने राग-द्वेष, मद, मोह आदि आत्म शत्रुओं को जीत लिया है, वे वीतराग देव मेरे सुदेव हैं, पांच महाव्रत पालने वाले सच्चे साधु मेरे सुगुरु हैं तथा राग-द्वेष रहित वीतराग देवों द्वारा कथित यथार्थ वस्तु स्वरूपमय धर्म ही मेरा सुधर्म है। मैं मानता हूं कि दृढ़ विश्वास और श्रद्धा सफलता की कुंजी होती है तथा सभी प्रकार की आधि भौतिक एवं आध्यात्मिक सिद्धियों के लिये तो आत्म-विश्वास परमावश्यक है। मोक्ष के लिये भी यह आवश्यक है कि मोक्ष के उपाय में दृढ़ विश्वास हो और यही सम्यक् दर्शन है। विश्वास में जो व्यक्ति डांवाडोल रहता है या हो जाता है, उसकी सफलता भी संदिग्ध बन जाती है। इसलिये सम्यक् दर्शन के पांच दोष बताये गये हैं—(१) शंका-मोक्ष मार्ग में सन्देह करना, (२) कांक्षामोक्ष के निश्चित मार्ग को छोड़कर दूसरी बातों की इच्छा करने लग जाना, (३) वितिगिच्छाधर्माराधन के फल में सन्देह करना, (४) परपाखंडप्रशंसा–धर्महीन ढोंगी (पाखंडी) की लौकिक ऋद्धि को देखकर उसकी प्रशंसा करना, तथा (५) परपाखंडसंस्तव ऐसे ढोंगी का परिचय करना तथा उसके पास अधिक उठना-बैठना। सम्यक दर्शन का अर्थ अन्ध विश्वास मैं कतई नहीं मानता हूं क्योंकि अन्ध विश्वास का अर्थ होता है हिताहित, सत्यासत्य अथवा सदोष-निर्दोष का भान नहीं रखना तथा अपने मत का हठ पकड़कर बैठ जाना। जबकि सम्यक् दर्शन का अर्थ है कि जो वस्तु स्वरूप सत्यं हो, उसी पर दृढ़ विश्वास करना। मैं सम्यक् दर्शन का श्रद्धान् यही मानता हूं कि जीव आदि तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त कर उसका मनन करना, परमार्थ का यथार्थ स्वरूप जानने वाले महात्माओं की सेवा भक्ति करना तथा सम्यक्त्व से गिरे हुए पुरुषों एवं कुदार्शनिकों की संगति नहीं करना। सम्यक्त्व विहीन पुरुष को सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती और सम्यक् ज्ञान बिना चारित्र-गुण प्रकट नहीं होते। गुणरहित पुरुष का सर्व कर्म क्षय रूप मोक्ष नहीं होता। यह भी कहा है कि चारित्र भ्रष्ट आत्मा भ्रष्ट नहीं है, पर दर्शन भ्रष्ट आत्मा ही वास्तव में भ्रष्ट है। सम्यक् दर्शन धारी आत्मा संसार में परिभ्रमण नहीं करती। सम्यक्त्व धारी आत्मा की भावना सम्यक् होती है, इसलिये उसे सम्यक् या असम्यक् कोई भी बात सम्यक् रूप से ही परिणत होती है। दर्शन के चार प्रकार बताये गये हैं—(१) चक्षु दर्शन—चक्षु दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम होने पर चक्षु द्वारा जो पदार्थों के सामान्य धर्म का ग्रहण होता है, उसे चक्षु दर्शन कहते हैं। (२) अचक्षुदर्शन -अचक्षु दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम होने पर चक्षु के सिवाय शेष स्पर्श, रसना, घ्राण और श्रौत्र इन्द्रिय तथा मन से जो पदार्थों के सामान्य धर्म का प्रतिभास होता है, उसे ३६६
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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