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________________ (१) मतिज्ञान–इन्द्रिय और मन की सहायता से योग्य देश में रही हुई वस्तु को जानने वाला ज्ञान । इसे आभिनिबोधिक ज्ञान भी कहते हैं। इसके चार प्रकार हैं -(अ) अवग्रह—सामान्य प्रतिभास के बाद होने वाला अवान्तर सत्ता सहित वस्तु का सर्वप्रथम ज्ञान । जैसे दूर से किसी चीज का ज्ञान होना। (ब) ईहा सर्वप्रथम ज्ञान में संशय को दूर करते हुए विशेष की जिज्ञासा। दूर से दीखने वाली चीज मनुष्य या पशु ऐसा संशय दूर करके यह जान लेना कि वह मनुष्य होना चाहिये। (स) अवाय-ईहा से जाने हुए पदार्थों में यह वही है, अन्य नहीं है। ऐसा निश्चयात्मक ज्ञान। जैसे यह मनुष्य ही है। (द) धारणा- से जाने हुए पदार्थों के ज्ञान का दृढ़ हो जाना कि जो विस्मृत न हो। (२) श्रुतज्ञान-वाच्य वाचक भाव सम्बन्ध द्वारा शब्द से सम्बद्ध अर्थ को ग्रहण कराने वाला इन्द्रिय और मन के कारण से होने वाला ज्ञान। यह ज्ञान मतिज्ञान के बाद होता है तथा शब्द और अर्थ की पर्यालोचना से उत्पन्न होता है। जैसे कि घट शब्द के सुनने पर या आंख से घड़े को देखने पर उसके बनाने वाले का, उसके रंग का और इसी प्रकार के उससे सम्बन्धित भिन्न भिन्न विषयों का विचार करना श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञान के दो प्रकार है –(१) अंगप्रविष्ठ श्रुतज्ञान-जिन आगमों में गणधरों ने तीर्थंकर भगवान् के उपदेश को ग्रथित किया है उन आगमों को अंगप्रविष्ठ श्रुतज्ञान कहते हैं। इसमें आचारांग आदि बारह अंगों का ज्ञान सम्मिलित है। (२) अंगबाह्य श्रुतज्ञान द्वादशांगों के बाहर का शास्त्र ज्ञान बाह्य श्रुतज्ञान कहलाता है। (३) अवधिज्ञान–इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना, मर्यादा लिये हुए रूपी द्रव्य का ज्ञान । यह मर्यादा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की होती है। इसके दो प्रकार हैं -(१) भव-प्रत्यय अवधिज्ञान—जिस अवधिज्ञान के होने में भव ही करण हो। जैसे नारकीयों व देवताओं को जन्म से ही अवधिज्ञान होता है (२) क्षयोपशम प्रत्यय अवधिज्ञान-ज्ञान, तप आदि कारणों से मनुष्यों और तिर्यंचों को जो अवधिज्ञान होता है, वह क्षयोपशम प्रत्यय अवधिज्ञान कहलाता है। इसे गुण प्रत्यय या लब्धि-प्रत्यय भी कहते हैं। (४) मनःपर्यय ज्ञान–इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना, मर्यादा को लिये हुए संज्ञी जीवों के मनोगत भावों का ज्ञान। इसके दो प्रकार हैं -(१) ऋजमति मनःपर्यय ज्ञान -दूसरे के मन में सोचे हुए भावों को सामान्य रूप से जानना । जैसे अमुक व्यक्ति ने घड़ा लाने का विचार किया है। (२) विपुल मति मनःपर्यय ज्ञान-दूसरे के मन में सोचे हुए पदार्थ के विषय में विशेष रूप से जानना। जैसे अमुक व्यक्ति ने अमुक रंग का, अमुक आकार वाला या अमुक समय में बना घड़ा लाने का विचार किया है। विचार की विशेष पर्यायों व अवस्थाओं को जानना । (५) केवलज्ञान–मति आदि ज्ञान की अपेक्षा के बिना, त्रिकाल एवं त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थों को युगपत् हस्तामलकवत् (एक साथ हाथ में रखे हुए आंवले के समान) जानने वाला ज्ञान । केवल ज्ञान सर्वोत्कृष्ट ज्ञान होता है। सम्यक् ज्ञान की महत्ता को हृदयंगम करते हुए मैं जानता हूं कि पहले ज्ञान और उसके बाद क्रिया। यह आत्मा सुनकर कल्याण का मार्ग जानती है और सुनकर ही पाप का मार्ग जानती है, अतः साधक का कर्तव्य है कि दोनों मार्गों का श्रवण करे और जो श्रेयस्कर प्रतीत हो उस का आचरण करे। जैसे धागा पिरोई हुई सुई कचरे में पड़ जाने पर भी गुम नहीं होती, उसी प्रकार ३६५
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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