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________________ सामान्य रूप से मनुष्य सोचता है कि वह किसी से क्यों कुछ मांग कर नीचा बने ? छोटे से छोटे आदमी में भी दबा - छिपा हो, लेकिन ऐसा अहं जरूर होता है। इस अहंकार को तोड़ना तथा अपने आपको याचक के रूप में प्रस्तुत करना बड़ा कठिन होता है। वैसे भिक्षा के अनुभव भी सामान्य नहीं होते हैं— कहीं घी घणा तो कहीं ओछा चणा । यह तो ठीक, लेकिन दाता के व्यवहार में भी बड़ी विचित्रता दृष्टि में आती है। दाता सद्व्यवहारी भी हो सकता है और असद् व्यवहारी भी । असद्व्यवहारी दाता की अवहेलना एवं अवमानना शान्तिपूर्वक सह लेना सरल नहीं होता है। इस रूप में भिक्षा चर्या का तप तपने वाले की आन्तरिक वृत्तियों की कड़ी परीक्षा लेता है। मैं चिन्तन करता हूं कि भिक्षा चर्या तप को वृत्ति संक्षेप क्यों कहा है ? वृत्ति का अर्थ है – निर्वाह के साधन रूप भोजन उपकरण आदि । जब सर्व विरति धर्म का पालक साधु भिक्षा वृत्ति को अपनाता है तब निश्चय ही वह अहंकार जयी बनता है । अहंकार को जीतने के साथ ही यह विचार आना स्वाभाविक है कि जब भिक्षा मांग कर अपना निर्वाह चलाना है तो पहली बात यह कि उसे बहुत ही आवश्यक पदार्थों पर निर्भर रहना चाहिये। दूसरे, उस अति आवश्यकता में भी अल्पता की जाती रहे तो वह श्रेष्ठ है। इस प्रकार भिक्षा चर्या की भावपूर्ण आराधना में वृत्ति संक्षेप एक अनिवार्य निष्पत्ति बनती है। यह वृत्ति संक्षेप ही वृत्ति संकोच होता है । भिक्षा चर्या के तप में भी शुद्धता की दृष्टि से कड़ी कसौटियां रखी गई हैं। एक निर्ग्रथ साधु को निम्न नौ कोटियों से विशुद्ध आहार ही ग्रहण करना होता है— (१) साधु आहार के लिये स्वयं जीवों की हिंसा न करे । चाहिये । (२) इस हेतु दूसरों के द्वारा भी हिंसा नहीं करावे । (३) इस हेतु हिंसा करते हुए का अनुमोदन भी नहीं करे अर्थात् उसे भला न समझे । (४) आहार आदि स्वयं नहीं पकावे । (५) दूसरे से न पकवावे । (६) पकाते हुए का अनुमोदन न करे । (७) आहार आदि स्वयं नहीं खरीदे । (८) दूसरे को खरीदने के लिये न कहे । तथा (६) खरीदते हुए किसी व्यक्ति का अनुमोदन नहीं करे । 2 ये नौ कोटियां मन, वचन एवं काया रूप तीनों प्रकार के योगों से सम्बन्धित मानी जानी भिक्षाचर्या तप के तीस भेद कहे गये हैं- (१) द्रव्य – द्रव्य विशेष का अभिग्रह लेकर भिक्षा चर्या करना । (२) क्षेत्र – स्वग्राम और परग्राम से भिक्षा लेने का अभिग्रह करना । (३) कालप्रातः काल या मध्यान्ह में भिक्षाचर्या करना । ( ४ ) भाव – गाना, हंसना, आदि क्रियाओं में प्रवृत्त पुरुषों से भिक्षा लेने का अभिग्रह करना । (५) उत्क्षिप्त चरक - अपने प्रयोजनों के लिये गृहस्थी के द्वारा भोजन के पात्र से बाहर निकाले हुए आहार की गवैषणा करना । (६) निक्षिप्त चरक - भोजन के पात्र से उद्घृत और अनुद्धृत दोनों प्रकार के आहार की गवैषणा करना । (७) उत्क्षिप्त - निक्षिप्त ३२६
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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