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________________ पान द्रव्य ऊनोदरी। पहले भेद उपकरण द्रव्य ऊनोदरी के तीन भेद-(१) पात्र (२) वस्त्र और (३) जीर्ण उपधि। दूसरे भेद भक्त पान द्रव्य ऊनोदरी के पांच भेद-(१) अल्पाहार ऊनोदरी-एक से आठ कवल (कवे) प्रमाण आहार करना । (२) उपार्ध ऊनोदरी - नौ से बारह कवल प्रमाण आहार करना। (३) अर्ध ऊनोदरी तेरह से सोलह कवल प्रमाण आहार करना। (४) पोण ऊनोदरीसत्तरह से चौबीस कवल प्रमाण याने पोन पांति का आहार करना । एवं (५) किंचित् ऊनोदरीपच्चीस से इकतीस कवल प्रमाण आहार करना, क्योंकि पूरे बत्तीस कवल प्रमाण आहार करना प्रमाणोपेत आहार कहलाता है। भाव ऊनोदरी के सामान्यतः छः भेद किये जाते हैं—(१) अल्प क्रोध अर्थात् क्रोध का निग्रह करते चले जाने की प्रक्रिया। (२) अल्प मान–सामान्य रूप से अनुभव में आने वाली मान वृत्ति को कम करना। (३) अल्प माया- अपने मायाचार को घटाना। (४) अल्प लोभ-तप का विचार रखते हुए अपनी लोभ वृत्ति में कमी करना । (५) अल्प शब्द –वाणी निग्रह का ध्यान रखना। तथा (६) अल्प झज्झ (कलह) राग द्वेष की वृत्तियों तथा कलहकारी प्रवृत्तियों में कमी लाना। ___ ऊनोदरी तप की महत्ता को मैं समझू तथा इसकी आराधना का व्रत लूं। भोजन और उपकरणों का परिमाण मैं क्रमशः घटाता चलूंगा तो उसका निश्चित रूप से यह प्रभाव होगा कि मैं बाहरी सुख सुविधाओं के सम्बन्ध में अपने चित्त की लिप्तता को कम कर सकूँगा, क्योंकि आहार का परिमाण घटता रहेगा तो देह-मोह घटेगा और खाने के लिये जीने की नहीं, बल्कि जीने के लिये खाने की शुद्ध प्रवृत्ति का विकास हो सकेगा। साधु अवस्था में भी कई बार देह मोह मिटता नहीं है तो उसकी सुख सुविधाओं का खयाल आ जाता है जिसके निराकरण के लिये आहार के साथ उपकरणों की अल्पता का बोध भी इस ऊनोदरी तप के माध्यम से होता है। ( मेरा विचार है कि जब साधु के लिये शास्त्र सम्मत आहार (बत्तीस कवल) में भी कमी की जाती है और इसी प्रकार भंड, वस्त्र, पात्र एवं उपकरणों में भी मान्य परिमाण से भी अल्पता ग्रहण होती है, तब निश्चय ही उस सादगी का असर मन के भावों पर शुभ रूप में पड़ता हैं। भाव ऊनोदरी के रूप में उसके क्रोध, मान, माया तथा लोभ की वृत्तियों में कमी आती है, वह मितभाषी हो जाता है तथा क्रोध के वशीभूत होकर वचन नहीं निकालता है एवं आते हुए क्रोध को शान्त कर देता है। इस प्रकार यह ऊनोदरी तप अपने आचरण में पहले तप अनशन की अपेक्ष होता है। मैं भावना भाता हूं कि इस तप की मेरी आराधना सफल बने ताकि मैं देह-मोह से दूर हटकर आत्म स्वरूप में अधिक रमण कर सकू एवं अपने कषाय भावों को मन्दतर बना सकूँ। मेरे कर्म क्षय की दिशा में मैं इस दूसरे सोपान पर दृढ़ संकल्प के साथ आरूढ़ हो सकू और तीसरे सोपान पर पहुंचने की शक्ति अर्जित कर सकू—ऐसी मेरी भावना है। भिक्षा चर्या वृत्ति-संकोच विविध अभिग्रह (प्रण) लेकर भिक्षा का संकोच करते हुए विचरना भिक्षा चर्या तप कहलाता है। अभिग्रह पूर्वक भिक्षा करने से वृत्ति का संकोच होता है। इसलिये इसे वृत्ति-संक्षेप भी कहते हैं। ___ मैं संसार में इस सामान्य तथ्य का अनुभव करता हूं कि मनुष्य के मन में अहंकार बड़ी गहरी जड़ें जमाकर टिका हुआ होता है। इसी कारण कोई किसी का अहसान लेने से झिझकता है। ३२५
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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