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________________ स्थान-सुविधा की भी परीक्षा कर लेता हूँ यह भी मैं जानता हूँ कि प्रतिष्ठा या पूजा की ऐहिक कामना के साथ तप का शुद्ध आराधन नहीं होता है और जो साधु बन कर कठिन तपश्चरण करता है लेकिन ऐहिक कामनाओं से ग्रस्त रहता है तो उसका वह कठिन तपश्चरण भी निष्फल जाता है। वस्तुतः धर्म मेरा जलाशय है ब्रह्मचर्य आदि तप शान्ति तीर्थ हैं, आत्मा की शुभ लेश्या मेरा निर्मल घाट है, जहाँ पर आत्म स्नान कर मैं कर्म मल से मुक्त हो जाता हूँ। तप की विशेषता तो प्रत्यक्ष दिखलाई देती है, किन्तु जाति (अन्य बाह्य कारण) की तो कोई विशेषता नजर में नहीं आतीं। तप की ही विशेषता होती है कि साधक अन्ततोगत्वा अव्याबाध सुख की अवाप्ति कर लेता है। मैं अनुभव कर चुका हूँ कि तप में ही वर्तमान शक्ति लगाने से विविध आत्मिक शक्तियों की अभिव्यक्ति होती है। यह शक्ति इस रूप में लगानी होती है कि मैं अपने क्रोध का दमन करूं, मान को मर्दित बनाऊँ, माया को कृश कर दूं तथा लोभ-लाभ की लालसा छोड़ दूं। (इच्छा निरोध से विषय एवं शक्ति प्रयोग से कषाय का अन्त कर दूं तो मेरा तप सफलता की सीढियाँ चढ़ने लगेगा। देह सुखाने के साथ मेरा मोह-ममत्त्व भी सूखेगा तो विविध प्रकार की ग्रन्थियाँ भी सुलझ जायेगी। मोह-विजय तप-शस्त्र से ही संभव है। अनशन आदि तपों के आचरण से मन मंगलमय बनता है तो ' इन्द्रियों की शक्ति भी संयम की आराधना में लगती है। तप की यह विशेषता प्रकट हो, तभी तप को सार्थक मानना चाहिये कि इन्द्रियों तथा देह की क्षीणता के साथ आत्म-बल क्षीण न हो। आत्म बल तपाराधन से निरन्तर बढ़ता रहे—वही तप वास्तविक तप होगा। मेरी सुनिश्चित धारणा है कि यथार्थ रीति से तप का आचरण मात्र कर्म क्षय के लिए होना चाहिये, अन्य किसी भी प्रयोजन से नहीं। और किसी भी लौकिक प्रयोजन से किये जाने वाले तप को तो वास्तव में तप कहना ही समुचित नहीं होगा। स्वर्ग, यश अथवा भोग की प्राप्ति के प्रयोजन से किया जाने वाला कठिन तप भी कभी मुक्ति का कारण नहीं बनता। अविवेक-मिथ्याज्ञान को साथ रख कर किया जाने वाला तप बालतप कहलाता है और बाल-तप से आत्म शुद्धि नहीं होती। अतः तप के गूढ़ मर्म का ज्ञान नितान्त आवश्यक है। वह.मर्म है कि तप करते रहने से आत्म बल बढ़ता रहे, विचार शुद्धि होती रहे तथा सत्कर्म-नियोजन सुदृढ़ बनता रहे । यदि तपस्या करने से आत्मशक्ति ही क्षीण लगे, दुान नियंत्रित न हो सके तथा धर्म क्रिया में प्रवृत्ति करना सुखकर प्रतीत न हो तो वैसी तपस्या से क्या लाभ? ___ मैं तप के स्वरूप एवं उससे प्राप्त ऊर्जा की सार्थकता इस परिणाम में मानता हूँ कि मेरा तप विषय एवं कषायमय मेरी वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों को उपशामित करे, पूर्व संचित कर्मों का विनाश करे तथा मेरे हृदय में अपूर्व शान्ति का संचार करे। तप की अग्नि जितनी तेजस्वी हो, आन्तरिक शान्ति उतनी ही शीतल बनती जाय। मैं मानता हूँ कि एक तपस्वी साधक को धृतिमान, सहनशील तथा क्षमाशील होना चाहिये। देह-शुद्धि से आत्म शुद्धि तक तपश्चरण से जहाँ देह के सातों धातुओं को तपाते हैं और उन्हें कृश बनाते हैं, वहाँ आत्मा के आठों कर्मो को भी नष्ट करते हैं। देह तपाराधन से जितनी क्षीण होती जाती है, इच्छाएँ उतनी ही क्षीण हो जाती हैं तथा तृष्णा भी जीर्ण हो जाती है। सच तो यह है कि तपाराधन का मूल उद्देश्य ही तृष्णा को जीर्ण करना है, क्यों कि सामान्यतया मनुष्य का जीवन जीर्ण हो जाता है लेकिन ३१७
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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