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________________ के लिये भी होगा तथा अन्य प्राणियों के कल्याण के लिये भी क्योंकि सर्वहित से स्वहित सदा सम्बद्ध रहता है। समभाव सर्वहित का सफल संयोजक होता है अतः मेरा पुरुषार्थ सभी क्षेत्रों में सुखकारी सुव्यवस्था स्थापित करने की दृष्टि से समभाव से परिपूर्ण रहेगा। मैं अपनी आत्मा को विभाव क्षेत्र में से निकालने के अपने पुरुषार्थ के साथ यह प्रयत्न भी करता रहूंगा कि अन्य आत्माएँ भी अपने विभाव क्षेत्र के विकारों को समझें तथा वहाँ से बाहर निकलें। आत्मा के स्वाभाविक गुणों का विकास मेरे भीतर और बाहर संसार में सर्वत्र हो - यह मेरा केन्द्रस्थ लक्ष्य होगा । छठा सूत्र और मेरा संकल्प मैं पराक्रमी हूँ, पुरुषार्थी हूँ, क्योंकि मेरी आत्मा पौरुषवती है, इसलिये मैं अपने सोये हुए पुरुषार्थ को जगाऊंगा और उसे धर्माराधना में इतनी प्रबलता के साथ प्रायोजित करूंगा कि मेरा वह पराक्रम और पुरुषार्थ मोक्षगामी बनकर अपने सर्वोत्कृष्ट स्वरूप को प्रभावान बनादे । मैं संकल्प लेता हूँ कि मैं सदा अपने करणीय का चिन्तन करता रहूंगा - ज्ञेय को जानता रहूंगा तथा हेय को छोड़ हुए उपादेय को ग्रहण करता रहूंगा। यह भी नित्यप्रति सोचता रहूंगा कि मैं क्या कर रहा हूँ और मुझे क्या करना चाहिये ? मेरा अबाध चिन्तन चलता रहेगा कि मेरी आत्मा का मूल स्वरूप भी सिद्धों जैसा ही है लेकिन अभी वह अपने ही विभावों के घेरे में फंसी हुई है जिस कारण उसका यह स्वभाव-धर्म कर्मों से आवृत्त बना हुआ है। इस आवृत्त को भेदना ही मेरे पुरुषार्थ का प्रधान लक्ष्य है। मूल स्वभाव की संस्मृति के साथ जब मेरी आत्मा अपने आन्तरिक रूपान्तरण को सफल बना लेगी तो उसके स्वाभाविक गुणों का भी समुचित रीति से विकास होने लगेगा। तब वह अपने पुरुषार्थ-प्रयोग के प्रति अधिक निष्ठा एवं सक्रियता को धारण कर सकेगी। उसका संसार के वातावरण पर भी सम्यक् प्रभाव पड़ेगा तथा बाहरी परिस्थितियों में भी मानवीय मूल्यों की नई क्रान्ति जन्म लेगी। अतः मैं संकल्प बद्ध होता हूँ कि मैं अपने आत्म-स्वरूप तथा जागतिक वातावरण का दृष्टा बन कर आत्म शुद्धि का पुरुषार्थ दिखाऊंगा तथा शुभ परिवर्तन के समग्र रूप से प्रसार का पराक्रम प्रकट करूंगा । मेरा पुरुषार्थ अहिंसा, संयम एवं तप रूप धर्म से आरंभ होकर मोक्ष तक अविचल गति से आगे बढ़ता ही रहेगा और सर्वत्र समभाव को जगाता ही रहेगा। ३०८
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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