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________________ जाय ? समीक्षण ध्यान हमारे ज्ञान चक्षु खोलेगा ही नहीं, बल्कि वह स्वयं ज्ञान चक्षु रूप बन जायेगा । एक साधक कालुष्य को देखेगा तभी उसका परिशोधन भी कर सकेगा। अपनी प्रारंभिक भूमिका में वह केवल अपनी चित्तवृत्तियों का सम्यक् निरीक्षण ही कर सकेगा। निरीक्षण से ही वह जान सकेगा कि मन किन-किन अशुभ प्रवृत्तियों में गतिशील हो रहा है ? उन प्रवृत्तियों के उद्दीपक हेतु क्या-क्या हैं ? इस जानकारी के बाद ही उन वृत्तियों की अशुभता से शुभता में प्रवृत्ति हेतु साधक अपने प्रयासों को तेज कर सकेगा। इस प्रकार का अनुचिंतनपूर्ण निरीक्षण ही समीक्षण ध्यान की भूमिका का कार्य करेगा। समीक्षण की इस प्रक्रिया के साथ व्यावहारिक जीवन से सम्बद्ध स्थूल चिन्तन की ओर मुड़ना होगा। व्यक्ति अकेला नहीं होता, वह अपनी सामाजिकता से भी बंधा हुआ होता है और इसलिये उसे समाज, परिवार अथवा अन्य संगठनों से सम्बन्धित प्रवृत्तियों में प्रवृत्त होना पड़ता है। यह उसकी व्यावहारिक अनिवार्यता है। इसलिये अपनी साधना के समय साधक को यह चिन्तन करना चाहिये कि विवशतावश उसको अपने समाज या अन्य संगठनों से सम्बन्धित अशुभ प्रवृत्तियों प्रवृत्त होना पड़ता है यह उसकी आत्मिक दुर्बलता है। अशुभ को अशुभ रूप में स्वीकार कर लेने से भी साधना को बल ही मिलता है। ऐसा ही विचार अपने अनैतिक आचरण के प्रति भी उठना चाहिये और साथ-साथ उस दुर्बलता को यथासाध्य शीघ्रातिशीघ्र दूर करने का भी मानस बनना चाहिये। विवशताजन्य असत्प्रवृत्तियों के प्रति पश्चात्ताप की भावना उभरनी चाहिये। इससे प्रायश्चित लेने की धारणा बनेगी क्योंकि प्रायश्चित उस भूल के प्रति सावधानी रखने के भाव का गहरा अंकन कर देता है । मन पर गंभीर प्रभाव को अंकित बनाये रखने का सरल उपाय यह है कि उसके द्वारा अधिक से अधिक इच्छित वैषयिक पदार्थ उसे न दिये जाय जिससे उसकी आसक्ति टूटती चली जाय। टूटती हुई आसक्ति में उसको जो संकल्पपूर्वक निर्देश दिये जायेंगे, उसकी पालना वह अवश्य करेगा। निर्देश देने के समय यह ध्यान में रखा जाना चाहिये कि मन की उन वृत्तियों का भी रूपान्तरण हो जो विवशता, प्रमाद अथवा दुर्बलता के घेरों में बंधी हुई हैं। उन वृत्तियों को भी जब परिमार्जित करने का पुरुषार्थ प्रकट होगा, तब समीक्षण ध्यान का भी वैज्ञानिक रूप अधिक सक्रिय बन जायेगा। यह सही है कि सभी भूलों या त्रुटियों का एक साथ परिमार्जन नहीं हो सकेगा किन्तु स्थूल वृत्तियों को शुभता की ओर मोड़ने के साथ सूक्ष्म दोषों पर भी साधक की दृष्टि अवश्य चली जायेगी। इस प्रकार जब तक चित्त में समीक्षण के प्रति उत्साह, उमंग और मन की गहरी भूख बनी रहे तब तक साधक आत्मावलोकन अथवा व्यवहार-दर्शन की इस प्रक्रिया में संलग्न बना रहे । चिन्तन का समय इस तरह बढ़ाया जाता रहे कि उससे मन ऊबे नहीं। क्योंकि शुरू में ही मन ऊब जायेगा तो वह चिन्तनशीलता आगे नहीं बढ़ सकेगी। समीक्षण का द्वितीय चरण जीवन के व्यावहारिक परिवेश में मनोवृत्तियों का समायोजन करने के बाद आत्म लक्ष्य में प्रवेश का समीक्षण का द्वितीय चरण प्रारंभ होता है । और यह चरण होता है आदर्श स्थिरता का । किसी भी उच्च आदर्श की स्थिरता के अभाव में साधना में अबाध गति उत्पन्न नहीं होती है । साधना का ही प्रश्न नहीं, किसी भी शुभ कार्य के प्रति तब तक समर्पित भाव उत्पन्न नहीं होता है जब तक कि कोई आदर्श-कल्पना सामने न हो । एक व्यवसायी भी अपने व्यवसाय को प्रारंभ करने से पूर्व て
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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