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________________ आदि के प्रलोभन में भी नहीं गिरेगी। ऐसे संकल्प से इन्दियों को प्रशस्त संबल मिल जायेगा जिसका आश्रय लेकर वे समस्त प्राणियों की रक्षा में सावधान बन जायेगी और विश्वमैत्री की उच्च भावना के अनुसार कार्य करेगी। समीक्षण ध्यान में केन्द्रस्थ होने के लिये मन के स्वरूप एवं उसकी गतिविधि को बारीकी से समझना जरूरी है। वस्तुतः मन एक बालक के समान स्वभाव वाला होता है नादान और चंचल । चंचलता के कारण यह संभव होता है कि किसी भी चीज का उपयोग विकास के लिये नहीं, विनाश के लिए कर दिया जाता है। एक बालक के हाथ में कल्हाड़ी आ जाय तो वह उस का उपयोग सबसे पहले अपने घर के दरवाजों पर ही करना शरू कर देगा। उस समय जितने स्नेह, जितने विवेक और जितनी कुशलता से बालक को समझाया जा सकता है, मन को सही राह पर लगाने के लिए उससे भी अधिक स्नेह, विवेक और कुशलता की आवश्यकता होगी। इसका कारण यह है कि मन हर समय क्रियाशील रहता है और उसकी क्रियाशीलता जितनी अनुपयोगी होती है, वह शैतान का घर बनता जाता है। इसलिये मन की विपथगामिता को रोकने तथा उसे सम्यक् दिशा में प्रवर्तित करने के लिये भी अद्भुत कौशल चाहिये। यही कौशल समीक्षण ध्यानाभ्यास से प्राप्त होता है। मन को काम चाहिये-क्रिया चाहिये, आप उसे सही काम और क्रिया दे देते हैं तो वह और दौड़ेगा एवं आपके उद्देश्य को सफल बनाने में जुट पड़ेगा। यदि आप उसे व्यवस्थित दिशा नहीं दे पाते हैं तो वह बिगडैल बच्चे की तरह इधर उधर भटकेगा ही। तब वह विध्वंस के सूत्रों को ही पकड़ता रहेगा। अतः मन के मननपूर्ण स्वभाव को एक साधक समझें और उसकी गतिशीलता को शुभता की ओर मोड़ें। मन तो हर समय गति करेगा ही इसलिए उसे स्थिर नहीं करना है बल्कि उसकी गति को शुभ मोड़ देना है। मनस्साधना का यही अर्थ है कि मन की गति-दिशा को परिवर्तित कर लेना। उसे असत् से सत्, अन्धकार से प्रकाश की ओर मोड़ लेना ही इस साधना का ध्येय है। यह मानस-परिवर्तन आत्मा को उसके विभाव से निकाल कर स्वभाव में अवस्थित बना देगा। ___ संसारी आत्मा अनादिकाल से कर्मों से संपृक्त बनी हुई है जिससे उसका मूल विशुद्ध रूप मलिन हो गया है। इस मैल को अनियंत्रित मन और इन्द्रियां बढ़ाती ही जाती हैं जो परत-दर-परत बहुत गाढ़ा और चिकना हो गया है। इस मैल को दूर करने का एक ही उपाय है कि विकार बढ़ाने वाली इन्द्रियों पर ही अपना अनुशासन स्थापित किया जाय और इसमें सहायता करता है समीक्षण ध्यान अर्थात् वृत्तियों के संशोधन, उदात्तीकरण अथवा रूपान्तरण की साधना। इस साधना का यह उद्देश्य कतई नहीं है कि मन को गतिहीन बना दिया जाय अथवा वृत्तियों का अवरूंधन कर दिया जाय। वृत्तियों के संशोधन, उदात्तीकरण तथा रूपान्तरण का कार्य करेगी समीक्षण ध्यान साधना, जो मन की गति को रोकेगी नहीं, शुभ दिशा में मोड़ देगी। साधक मन की गति को मोड़ेगा और मन इन्द्रियों को मोड़ेगा। यह क्रम चलता रहेगा और नियंत्रण का चक्र भी सुचारू रूप से घूमता रहेगा। समीक्षण ध्यान के परिप्रेक्ष्य में 'समीक्षण' का अर्थ संदर्भ स्पष्ट हो जाना चाहिये। समीक्षण शब्द का अर्थ है सम्यक् रीति से अथवा समतापूर्वक देखना-निरीक्षण करना। यह शब्द दो शब्दों सम्+ईक्षण के संयोग से बना है। इसका भावार्थ यह हुआ कि अपनी ही वृत्तियों को हम सम्यक् रीति से समभाव पूर्वक देखें और निरन्तर उनका निरीक्षण करते रहें। फलस्वरूप चित्तवृत्तियों की कलुषितता हमको समझ में आयेगी तो यह भी समझ में आयेगा कि उनका परिशोधन कैसे किया ७
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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