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________________ है। बोधि का अर्थ है ज्ञान का आन्तरिक प्रकाश और धर्म साधनों की प्राप्ति। धर्म के कोई साधन कितने सत्य स्वरूप हैं—उसकी जांच परख बोधि से ही की जा सकती है। इसीलिये बोधि को रत्न कहा गया है। जैसे रल की विशेषता प्रकाश है उसी प्रकार बोधि की विशेषता ज्ञान है जिसकी प्राप्ति अति दुर्लभ मानी गई है। कहा गया है कि उत्तम श्रवण भी मिल जाना संभव है किन्तु सत्य पर यथार्थ श्रद्धा होना बहुत ही कठिन है क्योंकि संसार में मिथ्यात्व का सेवन करने वाले बहुत दिखाई देते हैं। अतः मैं बोधि दुर्लभ भावना भाता हूं कि अनेक जन्मों के बाद महान् पुण्य के योग से मिले इस मनुष्य जन्म में जब तक शरीर निरोग है, वृद्धावस्था से जीर्ण-शीर्ण नहीं हुआ है और इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों को ग्रहण करने में समर्थ हैं, तब तक मुझे धर्म प्राप्ति का पूर्ण प्रयल कर लेना चाहिये। यह अवसर अमूल्य है जो आसानी से फिर मिलने वाला नहीं है। इस लिये प्रमाद को छोड़ कर मुझे अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर बन जाना चाहिये, वरना यही कहा जायगा कि दूल्हा विवाह का मुहूर्त आने पर सो गया और विवाह से वंचित रह गया। धर्म की परमहितकारी भावना जिस धर्म के प्रभाव से स्थावर और जंगम वस्तुओं वाले ये तीनों लोक विजयवन्त हैं और जो इहलोक व परलोक में प्राणियो का हित करने वाला तथा सभी कार्यों में सिद्धि देने वाला है, उस दयामय धर्म को मैं नित प्रति भाऊं और ध्याऊं, क्योंकि उस धर्म के तेजस्वी सामर्थ्य से अनर्थ जनित पीड़ाएं भी निष्फल हो जाती हैं। ऐसी है धर्म की परम हितकारी भावना। मैं चिन्तन करता हूं कि धर्म है क्या? आप्त वचन समाधान देते हैं कि अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म उत्कृष्ट मंगल है। जिसका धर्म चित्त में लगा हुआ है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। वस्तु का स्वभाव धर्म है। क्षमा आदि दस भेद रूप धर्म है। जीवों की रक्षा करना धर्म है और सम्यक्, ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र, रूप रन त्रय धर्म है। दान, शील तप और भाव रूप भी धर्म है। यह धर्म सत्य है क्योंकि वीतराग देवों ने कहा है और प्राणियों के लिये परम हितकारी है। राग और द्वेष से रहित, स्वार्थ और मोह से दूर, पूर्ण ज्ञानी व लोक त्रय का हित चाहने वाले वीतराग देव द्वारा उपदिष्ट धर्म के अन्यथा होने का कोई कारण नहीं है। धर्म चार पुरुषार्थ में प्रधान है तथा सबका मूल कारण है। इस धर्म की महिमा अपार है—चिन्तामणि, कामधेनु और कल्पवृक्ष—इसके सेवक हैं। धर्म अपने भक्त को क्या नहीं देता ? समुद्र पृथ्वी को नहीं बहाता, मेघ सारी पृथ्वी को जलमय नहीं करते, पर्वत पृथ्वी को धारण करना नहीं छोड़ते, सूर्य और चन्द्र अपने नियम से विचलित नहीं होते –ये सभी मर्यादाएं धर्म से ही बनी हुई है। इस प्रकार मैं धर्म भावना से अभिभूत होकर अनुभव करता हूं कि धर्म बान्धव रहित का बन्धु है, मित्र हीन का मित्र है, रोगी के लिये औषधि है, धनाभाव से दुःखी लोगों के लिये धन है, अनाथों का नाथ है और अशरण का शरण है। धर्म भावना के प्रभाव से मेरी आत्मा धर्म से च्युत नहीं होगी तथा निरन्तर धर्मानुष्ठान में तत्पर रहेगी। भाव शुद्धि, आत्मशुद्धि, समदर्शिता विषयों से मलिन तथा कषायों से विकृत बने अशुभ भावों के रूपान्तरण के पुरुषार्थ को मैं आधारगत रचनात्मक कार्य मानता हूं, क्योंकि भाव-शुद्धि के बिना आगे का कोई भी प्रगतिशील २६०
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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