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________________ स्वचालित यह लोक। मैं जब लोक के संस्थान का विचार करता हूं तब वह मेरी लोक भावना होती है। इस भावना का चिन्तन करने से तत्त्व ज्ञान की विशुद्धि होती है तथा मन बाह्य विषयों से हट कर आत्मनिष्ठ एवं स्थिर बनता है। मानसिक स्थिरता का अभ्यास बन जाय तो आध्यात्मिक सुखों की उपलब्धि कठिन नहीं रहती है। लोक का स्वरूप विस्तार से बताया गया है कि यह छः द्रव्यों—धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय, काल, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय से युक्त है। यह लोक किसी का भी बनाया हुआ नहीं है, न ही इसका कोई रक्षक अथवा संहारक हैं। यह लोक अनादि और आश्वत है तथा जीव और अजीव से व्याप्त है। पर्याय की अपेक्षा इसमें वृद्धि और विनाश देखे जाते हैं। लोक का प्रमाण चौदह राजू है। इसके बीचोबीच मेरू पर्वत है। लोक के तीन विभाग हैं ऊर्ध्वलोक अधोलोक और मध्यलोक। मध्यलोक में प्रायः तिर्यंच और मनुष्य रहते हैं. अधोलोक में प्रायः नारकीय जीव रहते हैं तथा ऊर्ध्वलोक में प्रायः देवता रहते हैं। लोक के अग्रभाग में सिद्धात्मा रहते हैं। लोक का विस्तार मूल में सात राजू है, फिर घटते-घटते मध्य में एक राजू है और फिर बढ़ते बढ़ते ब्रह्मलोक में पांच राजू का विस्तार है और ऊपर जाकर क्रमशः घटते-घटते एक राजू का विस्तार रह गया है। लोक का धन सात राजू है। जामा पहिन कर और पैर फैलाकर कोई पुरुष खड़ा हो, दोनों हाथ कमर पर रखे हों, उस आकार से लोक की उपमा दी गई है। लोक में पृथ्वी घनोदधि पर स्थित है घनोदधि घनवायु पर एवं घरवायु तनुवायु पर स्थित है। यह तनुवायु आकाश पर स्थित है। लोक के चारों ओर अनन्त आकाश है। लोक मे नीचे से ज्यों-ज्यों ऊपर आते हैं, त्यों त्यों सुख बढ़ता जाता है। ऊपर से नीचे की ओर अधिकाधिक दुःख है। ऊर्ध्वलोक में सर्वार्थसिद्ध के ऊपर सिद्ध शिला है। आत्मा का स्वभाव ऊपर की ओर जाना है, परन्तु कर्म भार से भारी होने के कारण वह नीचे जाती है। इस स्वरूप को समझ कर कर्मों से छुटकारा पाने के लिये आत्मा को धर्माचरण में प्रवृत्त होना चाहिये। ज्ञान का प्रकाश दुर्लभ होता है उस समय मेरा चित्त बहुत ही दुःखी होता है जब मैं अनेक मनुष्यों को मनुष्य जैसा दुर्लभ जन्म प्राप्त करके भी मिथ्यात्त्व और माया में फंसते हुए और संसार के अथाह कूप में गहरे उतर कर इधर उधर भटकते हुए देखता हूं। सोचता हूं कि इनको बोधिरन की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? मैं यह आत्मालोचना भी करता हूं कि मेरा अपना बोधिरन कितना सुन्दर, कितना स्वरूपवान् और कितना निर्मल है ? सूक्ष्म जीवाणुओं के अत्यन्त दुःख भरे जीवन से निकल कर आत्मा त्रस में, पंचेन्द्रिय में, पर्याप्तावस्था और संज्ञित्व में तथा सबसे ऊपर मनुष्य जन्म में आकर भी आत्म ज्ञान (बोधि) से वंचित रह जाय तो यह एक शोचनीय विडम्बना ही कही जायगी। बोधि प्राप्त करने का मनुष्य जन्म ही एक उपयुक्त अवसर है और यही कारण है कि देवता भी इस जीवन को पाने के लिये लालायित रहते हैं। इस कारण मानव जन्म में आर्य देश, उत्तम कुल, पूर्ण पांचों इन्द्रियां आदि दस प्रकार की उपलब्धियाँ पाकर बोधि प्राप्त करने तथा उसकी रक्षा करने का पूर्ण प्रयत्न किया जाना चाहिये। मैं अपने ही अन्तरावलोकन से जानता हूं कि बोधि—ज्ञान का प्रकाश दुर्लभ होता है। बोधि ज्ञान को कहूं और सम्यक्त्व को भी कहूं तथा रत्ल त्रय भी कहूं तो उसका अर्थ स्पष्ट हो जाता २५६
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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