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________________ को प्राप्त होगा। यह शरीर तो वैसे भी रोगों का घर है, फिर इसको जो स्थिर मानकर आत्मार्थी सावधानी ग्रहण नहीं करते हैं, वे पश्चात्ताप के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त नहीं करते हैं। यहाँ जवानी के साथ बुढ़ापा जुड़ा हुआ है, ऐश्वर्य के सभी साधन नाशवान हैं तथा जीवन के साथ मृत्यु लगी हुई मेरे अनुभव में आता है कि महात्मा लोग ऐसी अज्ञानी आत्माओं के प्रति दयाद्र होते हैं और उन्हें चेतावनी देते हैं कि जीवन जीर्ण हो जायगा, किन्तु आशाएं और तष्णाएं कभी जीर्ण नहीं होगी अतः कम से कम से कम आय घटने के साथ तो आत्मोत्थान के उपायों पर चिन्तन करो। प्रतिदिन मोह को प्रबल बनाते हो और आत्म कल्याण तथा लोकोपकार में प्रवृत्त होने का विचार नहीं बनाते हो—यह सचीन नहीं है। देखो, इस संसार में सब कुछ अस्थिर है-नाशवान है, तुम्हारे प्राप्त पदार्थ भी, तुम्हारा स्वयं का शरीर और जीवन भी। स्त्री, परिवार और सभी स्वजन क्षणस्थायी हैं। स्वामित्व स्वप्र तुल्य है। यहाँ संयोग भी वियोग के लिये ही होता है। इसलिये चेतो और इस संसार में मात्र शाश्वत और अनश्वर आत्मा की सेवा के लिये सजग एवं सक्रिय बनो। मैं वीतरागदेवों और सुगुरुओं के उपदेशों को आत्मसात् करता हूं और संसार की अनित्यता तथा अस्थिरता का विचार करते हुए सभी पदार्थों से पीछे हट जाता हूं, उनमें अपनी आसक्ति को घटाते हुए समाप्त कर देना चाहता हूं तथा उनके लिये क्षोभ एवं शोक करने के सभी मानसिक कारणों को भी मिटा देने के लिये तैयार हो जाता हूं। मुरझाई हुई फूलों की माला को छोड़ देने में भला शोक क्यों होना चाहिये ? मेरी शरणहीनता __ मैं अपनी रक्षा के लिये अपने शरीर को समर्थ और बलवान बनाता हूं, माता, पिता, पुत्र, भाई, स्त्री से विपत्ति के समय सहायता की आशा रखता हूं तथा अपने धन वैभव से सुरक्षा के साधन जुटाता हूं, किन्तु समय आने पर क्या कोई भी मेरी सुरक्षा कर सकता है -मुझे अभय शरण दे सकता है? जब मैं नाना प्रकार के रोगों से ग्रस्त बन जाता हूं तब क्या कोई मेरे रोग लेकर मुझे स्वास्थ्य प्रदान कर सकता है ? मगध देश के महाराजा श्रेणिक ने अनाथी मुनि से उनके दीक्षित हो जाने का कारण जानना चाहा तो उन्होंने कहा कि मैंने दीक्षा लेली क्योंकि मेरा कोई नाथ और शरणदाता नहीं रहा। तब गर्वोन्नत होकर श्रेणिक ने कहा—मैं आपका नाथ बनूंगा, मैं आपको शरण दूंगा क्योंकि मैं एक विशाल राज्य और उसकी अखूट सम्पत्ति का स्वामी हूं। अनाथी मुनि ने सहज भाव से उत्तर दिया-राजन्, तुम मुझे क्या शरण दोगे? तुम स्वयं शरणहीन और अनाथ हो। मुनि ने अपनी परम दारुण वेदना की कहानी कही तब राजा समझा कि इस संसार में कोई किसी का नाथ और शरण दाता नहीं बन सकता क्योंकि सभी अनाथ और शरणहीन हैं। राजा तो क्या, चक्रवर्ती और तीर्थंकर जैसी परम समर्थ आत्माएँ भी काल के पंजे से नहीं छूट सकती है। इस संसार में कोई भी वस्तु शरण रूप नहीं है। तब मैं सोचता हूं अपनी शरण-हीनता पर भी। मैं गर्व करता था अपनी भौतिक शक्तियों पर—अपने भुजबल पर, अपने स्वजन बल पर, अपनी सत्ता और अपनी सम्पत्ति के बल पर। किन्तु अब सोचता हूं कि किसी में भी मुझे शरण देने का सामर्थ्य नहीं है। ये रोग, व्याधि, जरा और मृत्यु २५३
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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