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________________ को सम्पूर्ण करने में समाई हुई है। यह भी विचार करूंगा कि आज की मेरी उपलब्धियां पहले की करुणा के फलस्वरूप ही है तो फिर उसी करुणा को मैं अपने जीवन में साकार स्वरूप क्यों न प्रदान करूं? मेरी मान्यता है कि धर्म का सम्पूर्ण सार एक दया में सन्निहित है, तभी तो दयामय धर्म को ही सच्चा धर्म माना गया है, अतः दुःखी प्राणियों के कष्ट हरण रूप दया को मैं अपने जीवन में सर्वोच्च स्थान देता हूं। (४) माध्यस्थ भावना—इस संसार में मेरे अनुकूल सम्बन्ध और पदार्थ होते हैं तो प्रतिकूल भी। यदि इस अनुकूलता और प्रतिकूलता को मैं अपने विचारों में स्थान दूं तो निश्चय ही राग और द्वेष की भावनाएं उभरेगी अनुकूल के प्रति राग तथा प्रतिकूल के प्रति द्वेष, जबकि मेरा सारा प्रयत्न ही भावनाओं के माध्यम से राग द्वेष को घटाना है। इस कारण मैं माध्यस्थ भावना का अभ्यास करूंगा कि अनुकूलताओं और प्रतिकूलताओं के प्रति समान भाव बन जाय। मनोज्ञ पदार्थ मिले तब भी वहीं बात और अमनोज्ञ मिले तब भी वहीं -सुख-दुःख, संयोग-वियोग में एक सरीखी महकासागिरी-यही मेरी माध्यस्थ भावना होगी। मैं भले बुरे का जब अपने ऊपर कोई असर नहीं मानूंगा तो मेरे मन में न तो विचार आन्दोलित होंगे और न वचन तथा काया प्रतिशोधात्मक प्रवृत्ति में जुटेंगे। इससे मेरी आत्मा को अपूर्व शान्ति मिलेगी। भावना अनुचिन्तन शुभ भावनाओं के कई प्रारूप हो सकते हैं जो भाव शुद्धि और मनः सिद्धि के कारण भूत बन सकें किन्तु मान्य बारह भावनाओं मे जो भाव-प्रेरक अर्थ गांभीर्य समाहित वह अपने ढंग का अनठा है तथा शाश्वत सिद्धान्तों की पष्ठभमि को स्पष्ट करने वाला है। वे भावनाएं हैं -(१) अनित्य भावना, (२) अशरण भावना (३) संसार भावना (४) एकत्व भावना (५) अन्यत्त्व भावना (६) अशुचि भावना (७) आश्रव भावना (८) संवर भावना (६) निर्जरा भावना (१०) लोक भावना (११) बोधि दुर्लभ भावना तथा (१२) धर्म भावना। (इनका विस्तार आगे दिया जा रहा है।) क्या यहाँ सब अस्थिर नहीं ? मैं इस संसार में चारों ओर देखता हूं तो यहाँ जो कुछ भी दिखाई देता है, वह सब कुछ अस्थिर, परिवर्तनशील और नश्वर दिखाई देता है। दृश्यमान कोई वस्तु शाश्वत नहीं दिखाई पड़ती है। जो पदार्थ जिस रूप में प्रातःकाल में दिखाई देते हैं, वे ही संध्याकाल में अपना रूप बदल लेते हैं। कइयों का तो अस्तित्त्व ही न पहिचाने जा सकने वाले दूसरे रूप में परिवर्तित हो जाता है याने कि वे पदार्थ नष्ट हो गये हैं ऐसा लगता है। कुछ ही समय पहले जहाँ मंगल गान होता हुआ सुनाई पड़ रहा था, वहाँ करुण क्रन्दन सुनाई देता है। जिस व्यक्ति को मैं पदासीन होते हुए देखता हूँ, उसी की चिता का धुंआ कुछ समय बाद दिखाई देने लगता है। इस प्रकार सांसारिक घटनाओं की क्षणभंगुरता मेरे सामने स्पष्ट हो जाती है। इन सबको देखते हुए भी यदि मैं अपने जीवन को अमर मान कर इन दृश्यों में अपने आपको व्यामोहित बनाता रहता हूं तो वह मेरी बुद्धिहीनता तथा विवेकहीनता ही होती है। मैं कई मनुष्यों को देखता हूं कि वे संसार के मोह ममत्त्व में इस प्रकार डूबे रहते हैं, जैसे उन्हें मरना ही नहीं है और सदा यहाँ की उपलब्धियों को भोगते ही रहना है। वे यह भूल जाते हैं कि आज यह शरीर जो युवावस्था के आनन्द उठा रहा है, कल जराग्रस्त एवं रोग ग्रस्त होकर मरण २५२
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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