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________________ रखवाली करना या इशारा करना सावध क्रिया में सम्मिलित माना गया है, (५) आलम्बन बिना कारण दीवाल आदि का सहारा लेकर बैठना (६) आकुंचन-प्रसारण - हाथ पांव फैलाना व समेटना (७) आलस्य - आलस्य से अंगों को मोड़ना (८) मोडण - हाथ पैर की अंगुलियों के कटके निकालना (६) मल दोष - शरीर का मैल उतारना (१०) विमासन — शोकग्रस्त दशा में बैठना या बिना पूंजे खुजलाना अथवा हलन चलन करना । ( ११ ) निद्रा - नींद लेना तथा ( १२ ) वैयावृत्य अथवा कम्पन — निष्कारण ही सामायिक में बैठे हुए दूसरे से अपनी वैयावृत्य कराना अथवा घूमना, हिलना या शरीर को कंपाना । ये काया के दोष हैं जिन्हें टालने से सामायिक में काम-शुद्धि होती है । - सामायिक व्रत के निश्चय एवं व्यवहार रूप इस प्रकार होंगे कि आत्मा के ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र गुणों का विचार करना तथा आत्म गुणों की अपेक्षा से सर्व जीवों को एक समान समझना तथा उनमें समता भाव की अवधारणा लेना निश्चय सामायिक व्रत है तो मन, वचन और काया को आरंभ से हटाना ओर आरंभ (हिंसा) न हो इस प्रकार उनकी प्रवृत्ति करना व्यवहार सामायिक है । सामायिक में बैठने पर सामायिक के इन पांच अतिचारों को भी टालना चाहिये – (१) मनोदुष्प्रणिधान – मन का दुष्ट (बुरा) प्रयोग (२) वाग्दुष्प्रणिधान – वचन का दुष्ट प्रयोग (३) काय दुष्प्रणिधान - काया का दुष्ट प्रयोग ( ४ ) सामायिक का स्मृत्यकरण - सामायिक की स्मृति या उपयोग न रखना एवं (५) अनवास्थित सामायिककरण - अव्यवस्थित रीति से सामायिक करना । पहले तीन अतिचार अनुपयोग के तो बाकी दो प्रमाद की बहुलता के हैं । सामायिक के समता रस में भींज कर मैं कुछ भी प्रिय या अप्रिय नहीं मानूंगा, किसी वस्तु लाभ पर हर्ष या हानि पर विषाद नहीं करूंगा तथा अपने प्रत्येक क्रियाकलाप के प्रति निर्भय बना रहूंगा। मैं प्रयासरत रहूंगा कि मेरा समभाव और साम्य विवेक किसी भी कारण से विचलित न हो तथा उससे बनने वाला समतामय आचरण अक्षुण्ण बने। मैं सभी प्रकार की आसक्तियों तथा असमानताओं का त्याग करूं तथा सबके प्रति मध्यस्थ भाव रखूं। मेरी अड़तालीस मिनिट की सामायिक अभ्यास में परिपुष्ट बनती हुई मुझे मेरे चौबीसों घंटों में समभावी बनावे, कठिन व्रत धारण की सक्षमता उत्त्पन्न करे, त्रिविध योग व्यापार को शुभतरता में ढाले, सहिष्णुता का सद्गुण प्रदान करे और अन्ततोगत्वा समदर्शी बनाकर समता-रस में आकंठ डुबो दे – यह मेरी हार्दिक अभिलाषा है और मैं इस अभिलाषा की पूर्ति हेतु कठिन पुरुषार्थ करते रहना चाहता हूं। शुभ, शुद्ध और भव्य भावनाएं अशुभ योग व्यापार को शुभता परिवर्तित करने के लिये सर्वप्रथम मुझे अपने मन की गति का रूपान्तरण करना होगा जिसके लिये मन को साधना पड़ेगा । शुभ, शुद्ध एवं भव्य भावनाओं रमण करते रहने का अभ्यास बनाना मनः सिद्धि में विशिष्ट रूप से सहायक होता है। शुभ भावनाएं भाने से मनः शुद्धि भी होती है तो मनः सिद्धि भी । भावनारत मन विशुद्धता एवं विवेक के साथ लक्ष्य सिद्धि के लिये भी अनुकूल सामर्थ्य अर्जित कर लेता है। मन सध कर वचन और कर्म को भी साध लेता है। फलस्वरूप त्रिविध योग व्यापार अशुभता से हटकर शुभता में रूपान्तरित होता है और अधिकाधिक आत्माभिमुखी बनता है । इस दृष्टि से भावनाओं का अमित महत्त्व माना जाना चाहिये । मैं 'भावना' को परिभाषित करूं तो वह परिभाषा इस प्रकार हो सकती कि संवेग, वैराग्य एवं भाव शुद्धि के लिये आत्म स्वरूप और जड़ चेतन पदार्थों के संयोग-वियोग के प्रति उसके २४८
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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