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________________ सकेगा। कि मैं मन को हर मौके पर बलात् पीछे खींचता रहूं। प्रारंभ में तो मेरी पूर्ण दृढ़ता ही मुझे सफलता दिला सकेगी किन्तु जब मन शुभ प्रवृत्ति में अभ्यस्त बनता जायगा तब वह आत्मनिष्ठ भी हो जायगा तो एकाग्र भी बन जायगा। तब वह अपनी भी अशुभ वृत्ति तक को प्रविष्ठ नहीं होने देगा। मैं निग्रह एवं एकाग्र प्रक्रिया से मन को वश में करूंगा और देखूगा कि मन पांचों इन्द्रियों को कड़ाई से वश में करे। राग के झौंकों और द्वेष के अंधड़ों को दूर हटाते हुए मैं चलूंगा कि मेरा मन और मेरी इन्द्रियां उनसे प्रभावित न हों। फिर वीतराग देवों के अमृतमय उपदेशों का चिन्तन मैं करूंगा, मेरा मन उनसे प्रभावित होगा और मेरी इन्द्रियां उन उपदेशों के अनुसार ही व्यवहार करेगी। मन में तब मैं न तो अधोमुखी संकल्प विकल्पों को उठने दूंगा और न ही उसे संशय में गिरने दूंगा। वह निःशंक होकर संयम के मार्ग पर सुस्थिर बनेगा तो घोड़े भी सरपट भागेंगे और रथ सबको सुरक्षित लेकर प्रगति करता रहेगा। मुझे सावधानी यही रखनी होगी कि यह मन भूल कर भी मैले में मुंह नहीं मारे या कि किसी तरह की गांठ न पटक दे। वह विशुद्ध भी बने और संयम में निग्रंथ भी, मन निग्रंथ हो जाय और आने वाली ग्रंथियों को सही तरीकों से सुलझाना सीख जाय तभी साधक सच्चा निग्रंथ मुनि बन सकता है। ऐसा ही मन सारे बंध तोड़ कर साधक को मोक्ष तक पहुंचा सकता मैं निश्चय कर चुका हूं कि बंध के कारण-रूप मन को उसकी दिशा बदल कर मैं मोक्ष का कारण भूत बना लूंगा। मैं एक पल भी असावधान नहीं रहूंगा या कि चैन नहीं लूंगा और मन को सम्हालता ही रहूंगा कि वह उन्मार्ग की दिशा में देखे तक नहीं। क्योंकि मैं जानता हूं कि यदि मैं मन की चंचलता को दूर करके उसे संयम में एकनिष्ठ नहीं बना सकूँगा तो मेरा जप-तप-ध्यान और ज्ञान-कोई भी अनुष्ठान सार्थक नहीं हो सकेगा। मन की मलिनता के साथ आत्म विकास की महायात्रा के पथ पर एक भी चरण स्वस्थ गति से आगे नहीं बढ़ सकेगा। इसलिये मन की मलिनता का मुझे प्रतिपल बोध होता रहे और उसको दूर करते रहने का मेरा पुरुषार्थ भी प्रति पल जागता हुआ रहे इसकी मुझे समुचित व्यवस्था करनी होगी। ऐसा करूं कि मैं मन के सामने ऐसा दर्पण लगा दूं कि उसकी कोई भी हरकत मुझसे अजानी न रह सके। यह है मन के लिये दर्पण मन कितनी शुभता में घूमा है और कितनी अशुभता में वह कितना मानवतायुक्त रहा है और कितना मानवताहीन-उसकी प्रतिच्छाया दिखाई देती है लेश्या के दर्पण में। मन के लिए मैं लेश्या को दर्पण मान लेता हूँ। क्या होती है लेश्या ? मन का जैसा योग व्यापार चलता है, वैसे ही कर्म आत्मप्रदेशों के साथ बंधते हैं। किन्तु इन दोनों की क्रियाओं का माध्यम होती है लेश्या । लेश्या वह बेरोमीटर होती है जिसमें मनोवृत्तियों का भी रंग दिखाई देता है और बंधने वाले कर्मों का भी। असल में लेश्या को रंग ही मान लीजिये जिससे मन के रंग की तुरन्त पहिचान हो सके। जिससे कर्मों का आत्मा के साथ सम्बन्ध हो, उसे लेश्या कहते हैं। या यों कहें कि जिसके द्वारा आत्मा कर्मों से लिप्त होती है और जो लिप्तता योगों की प्रवृत्ति से उत्पन्न होती है। संक्षेप में, मन के शुभाशुभ भावों को लेश्या कहते हैं। मन के जो विचार हैं, उनको भाव लेश्या कहते हैं और जिन विचारों से आकर्षित होकर २३६
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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