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________________ कि क्रोध की अधिकता से नरक गति में जाना पड़ता है। इसलिये मैं चौरासी लाख योनियों के सभी जीवों से क्षमा मांगता रहूं, किसी भी जीव के साथ वैर भाव नहीं रखूं तथा सभी प्राणियों के साथ अपने मैत्री भाव का विस्तार कर लूं। आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, सहधार्मिक, कुल और गण के प्रति भी मैं क्रोध आदि कषाय पूर्वक जो व्यवहार करूं, उसके लिये भी मन, वचन और काया से क्षमा चाहूं । मैं नतमस्तक होकर हाथ जोड़कर पूज्य श्रमण समुदाय से अपने सभी अपराधों के लिये विनयपूर्वक क्षमा मांगूं । धर्म में स्थिर बुद्धि होकर मैं सद्भाव पूर्वक सभी जीवों से अपने क्रोध - कषाय पूर्ण व्यवहार के लिये क्षमा चाहूं तथा सद्भाव - पूर्वक सभी जीवों के अपराधों को भी क्षमा कर दूं । क्षमा के साथ ही मेरे हृदय में अपूर्व शान्ति का संचार होगा, जिसके कारण उग्र से उग्र हेतु पैदा हो जाने पर भी क्रोध का मेरे ऊपर उग्र प्रभाव नहीं होगा । (२) मैं मान पर मृदुता एवं कोमल व विनम्र वृत्ति द्वारा विजय प्राप्त करूं । ज्यों ही मान भाव मेरे मन मानस पर आक्रमण करें, मैं अधिक से अधिक मृदुता एवं विनम्रता ग्रहण कर लूं। मैं विनय को धर्म रूप वृक्ष का मूल मानूं जिसका सर्वोत्तम रस मोक्ष रूप में मिलता है। मैं विनय-साधना से ही पूर्णतः प्रशस्त श्रुत ज्ञान का लाभ ले सकता हूं। मैं जानता हूं कि विनीत पुरुष ही संयमवन्त होता है और जो विनयरहित है, उसको धर्म और तप कहां से हो सकते हैं? मैं गुरु की आज्ञा पालूं, उनके समीप रहकर सेवा करूं तथा उनके इंगितों व आकारों को भलीभांति समझं तभी मैं विनीत शिष्य कहला सकता हूं। मैं जानता हूं कि गुरु का वचन नहीं सुनने वाला, कठोर वचन बोलने वाला और दुःशील का आचरण करने वाला शिष्य गुरु को भी क्रोधी बना देता है । इसके विपरीत गुरु की चित्त वृत्ति का अनुसरण करने वाला और अविलम्ब गति से गुरु का कार्य करने वाला विनीत शिष्य तेज स्वभाव वाले गुरु को भी प्रसन्न करके कोमल बना देता है । मैं आप्त वचनों को स्मरण करके प्रतिपल विनय भाव से ओतप्रोत रहना चाहता हूं ताकि किसी भी रूप में मान का अविर्भाव न हो सके। क्योंकि अविनीत को विपत्ति प्राप्त होती है तथा विनीत को सम्पति प्राप्त होती है—जो ये दो बातें जान लेता है, वही शिक्षा प्राप्त कर सकता है । बुद्धिमान् पुरुष अहंकार के दुष्प्रभाव को तथा विनय के महात्म्य को समझकर विनम्र बनता है। लोक में उसकी कीर्ति होती है और वह सदनुष्ठानों का आधार रूप होता है जैसे कि पृथ्वी प्राणियों के लिये आधार रूप होती है। मान का परिहार करके तथा विनय को धारण करके ही मैं तिर्यंच गति को टाल सकता हूं। ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय, मन विनय, वचन विनय, काम विनय और लोकोपचार विनय के रूप में मैं अपने सम्पूर्ण आचरण को विनय भाव से आलोकित बनालूं । (३) मैं ऋजुता और सरलता की भावनाओं से माया रूप कषाय का मर्दन करूं, जिस से कुटिलता मेरे भीतर प्रवेश तक न पा सके। मैं यह समझ कर अपने मायाचार की आलोचना करूं कि 'मायावी पुरुष इस संसार में सर्वत्र निन्दित और अपमानित होता है।' मायावी का परलोक भी गर्हित होता है— देव बने तो तुच्छ जाति का और मनुष्य बने तो वह नीच कुल में जन्म लेता है। मैं जानता हूं कि मायावी यदि अपनी आलोचना नहीं करता तो वह विराधक बन जाता है। इस कारण आराधक बने रहने के लिये मुझे बार-बार अपनी मायापूर्ण वृत्तियों व प्रवृत्तियों की आलोचना करते रहना चाहिये । (४) मैं लोभ को जीतने के लिये सन्तोषभाव को शस्त्र के रूप में काम में लूं ताकि लोभ क्षत विक्षत होकर मेरे आत्म-परिणामों में से चला जावे । जब आवे सन्तोष धन तो फिर सब धन मेरे २३५
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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