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________________ और न अपने स्वयं के स्वास्थ्य के प्रति ही ध्यान देता है। लोभ से लाभ और लाभ से लोभ के ध्यान में वह सब कुछ भुला देता है। वह हमेशा रौद्र ध्यान में पड़ा रहता है और सबसे बैर बढ़ाता रहता है। परस्पर अविश्वास उसका पहला दुर्गुण बन जाता है और अनन्त इच्छाओं के भ्रम जाल में वह अपने जीवन को जीर्ण बना लेता है किन्तु उसका लोभ जीर्ण नहीं बनता। ___लोभ के विभिन्न रूप उसके समानार्थक चौदह नामों से प्रकट होते हैं -(१) लोभ-सचित्त अथवा अचित्त पदार्थों को प्राप्त करने की लालसा रखना (२) इच्छा—किसी वस्तु को प्राप्त करने की अभिलाषा करना (३) मूर्छा—प्राप्त की हुई वस्तुओं की रक्षा करने की निरन्तर इच्छा बनाये रखना (४) कांक्षा-अप्राप्त वस्तु की इच्छा करना (५) गृद्धि प्राप्त वस्तुओं पर आसक्ति भाव बनाना (६) तृष्णा–प्राप्त अर्थ आदि का व्यय न हो ऐसे सोच में पड़े रहना (७) भिध्याविषय भोगों का ध्यान रखना (८) अभिध्याचित्त की चंचलता बनाना (E) कामाशा –इष्ट शब्द रूप आदि की प्राप्ति की कामना करना (१०) भोगाशा—इष्ट गंध, रस आदि की प्राप्ति की कामना करना (११) जीविताशा जीते रहने की कामना करना (१२) मरणाशा–विपत्ति के समय मरने की कामना करना (१३) नन्दी–वांछित अर्थ की प्राप्ति पर आनन्द मनाना तथा (१४) राग-विद्यमान सम्पत्ति पर प्रगाढ़ राग भाव रखना। क्रोध, मान एवं माया के समान लोभ के भी मूल कषाय रूप से चार भेद हैं(१) अनन्तानुबंधी लोभ-जैसे किरमची रंग किसी भी उपाय से नहीं छूटता, उसी प्रकार जो लोभ किसी भी उपाय से दूर न हो। (२) अप्रत्याख्यानावरण लोभ-जैसे बैलगाड़ी के पहिये का कीटा (खंजन) परिश्रम करने पर अति कष्ट पूर्वक छूटता है, उसी प्रकार जो लोभ अति परिश्रम से कष्टपूर्वक दूर किया जा सके। (३) प्रत्याख्यानावरण लोभ-जैसे दीपक का काजल साधारण परिश्रम से छूट जाता है वैसे ही जो लोभ कुछ परिश्रम से दूर हो। (४) संज्वलन लोभ—जैसे हल्दी का रंग सहज ही छूट जाता है वैसे ही जो लोभ आसानी से स्वयं दूर हो जाय। लोभ भी चार प्रकार का अन्य कषायों की तरह ही होता है- (१) आभोग निवर्तित (२) अनाभोग निवर्तित (३) उपशान्त तथा (४) अनुपशान्त। कषाय से मुक्त होना ही मुक्ति कषायों की मलिनता का विश्लेषण जान कर मुझे आप्त वचन का स्मरण हो आता है कि एक दृष्टि से मुक्ति वास्तव में कषायों से मुक्त हो जाने में ही है। क्रोध आदि कषाय सांसारिकता की जड़ों को सींचते हैं और संसार के रंगों को गाढ़ा बनाते हैं। अपने चारों ओर तथा कई बार स्वयं को देखने पर मेरे यह तथ्य अनुभव में आते हैं कि कषायों के सेवन से परलोक की दुर्गति को एक तरफ रख दें तब भी इस जीवन में ही इसके जो दुखपूर्ण परिणाम सामने आते हैं, वे सामान्य विवेक की रौशनी में भी चौंकाने वाले होते हैं। क्रोध प्रीति को नष्ट करता है, मान से विनयभाव की समाप्ति होती है, माया से मित्रता का नाश होता है और लोभ से प्रीति, विनय तथा मित्रता तीनों नष्ट हो जाते हैं। चारों प्रकार की कषाय को जीतने के भी चार उपाय बताये गये हैं : - (१) मैं क्रोध को शान्ति और क्षमा द्वारा निष्फल करके दबा दूं और क्षमावृत्ति को अभिवृद्ध बनाते हुए क्रोध को क्षय कर दूं—ऐसा मेरा पुरुषार्थ जागना चाहिये। कारण, मैं जानता हूं २३४
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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