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________________ मैं समझ गया हूं कि आठों कर्मों के बंध के कौन-कौनसे कारण है और उन्हें जानकर यह भी समझ गया हूं कि किस प्रकार मैं इन कारणों को रोकने में समर्थ हूं ? यही सामर्थ्य मुझे आठों कर्मों से विलग कर सकता है। यदि मैं कर्मों के बंध को ही रोकने लग जाऊं तो फिर ये कर्म मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेंगे। तब मैं अपनी संवर साधना के माध्यम से आते हुए कर्मों को रोक सकूंगा तो पहले के बंधे हुए कर्मों को क्षय करने की दिशा में भी अपने पुरुषार्थ को लगा सकूंगा । इस क्रमिक प्रक्रिया की सफलता के साथ मैं आशा कर सकता हूं कि एक दिन मैं अपनी बद्ध आत्मा को बुद्ध तथा सिद्ध भी बना सकूंगा । मैं जान गया हूं कि सामान्य रूप से आयु कर्म के सिवाय सभी सातों कर्मों का बंध एक साथ होता है । इनके क्रम का कारण यह है— ज्ञान और दर्शन जीव के स्वतत्व रूप हैं क्योंकि इनके बिना जीवत्व की उत्पत्ति ही नहीं होती है। जीव का लक्षण चेतना उपयोग है और उपयोग ज्ञान-दर्शन रूप होता है। ज्ञान और दर्शन में भी ज्ञान प्रधान है। ज्ञान से ही वैचारिकता जागती है तथा लब्धियां प्राप्त होती हैं और जिस समय जीव सकल कर्मों से मुक्त हो जाता है तब वह ज्ञानोपयोग वाला ही हो जाता है। इसी कारण ज्ञान के आवरक कर्म को पहले क्रम पर रखा गया है। ज्ञानोपयोग से गिरा हुआ जीव दर्शनोपयोग में स्थित होता है अतः दूसरा क्रम दर्शनावरणीय कर्म का है। ये दोनों कर्म अपना फल देते हुए यथायोग्य सुख - दुःख रूप वेदनीय कर्म में निमित्त होते हैं, इसलिये इसका तीसरा क्रम है। वेदनीय कर्म दृष्ट वस्तुओं के संयोग में सुख तथा अनिष्ट वस्तुओं के संयोग में दुःख उत्पन्न करता है जिसके कारण राग और द्वेष के भाव पैदा होते हैं। ये राग और द्वेष के भाव ही मोह के कारण हैं, अतः चौथे क्रम पर मोहनीय कर्म रखा गया है। मोहनीय कर्म से मूढ़ हुए प्राणी महारंभ, महापरिग्रह आदि में आसक्त होकर नरक आदि का आयुष्य बांधते हैं इसलिये बाद में आयु कर्म का क्रम है। आयु कर्म के बाद नाम व गौत्र की रचना होती है तथा अन्तराय की स्थिति पैदा होती है। अतः इस क्रमिकता के अनुसार ही आठों कर्मों का क्रम है। मैं यह भी जान गया हूं कि मेरी आत्मा को जन्म-मरण के चक्र में घुमाने वाला कर्म ही है । यह कर्म मेरे ही अतीत के कार्यों का अवश्यंभावी परिणाम है। जीवन की विभिन्न परिस्थितियों का कर्म ही प्रधान कारण है । मेरी वर्तमान अवस्थाएं किसी बाह्य शक्ति की बनाई हुई या दी हुई नहीं हैं। यह पूर्व जन्म या वर्तमान जन्म में मेरे ही किये हुए कर्मों का फल है। मैं जो कुछ भी अभी घटित होते हुए देखता हूं, वह मेरी ही किसी अन्तरंग अवस्था का परिणाम होता है। मैं जो कुछ पाता हूं, वह मेरी ही अपनी खेती का फल है ! मैं जैसा बोता हूं, वही काटता हूं। या यों कहूं कि मैंने जैसा किया है, वैसा भरता हूं और जैसा अभी करता हूं, वैसा आगे भरूंगा। मैं ही अपने बनने वाले भाग्य का नियन्ता हूं। मैं जब अपने भाग्य को दोष देता हूं तो यह भी मुझे समझना चाहिये कि वह दोष मेरा ही है। इस समझ से मेरे भीतर यह ज्ञान जागेगा कि मुझे जैसा आगे अपना भाग्य • चाहिये, वैसा ही पुरुषार्थ मैं आज करूं। मैं पूर्ण रूप से स्वतंत्र हूं कि मैं अपने भाग्य को आज किस रूप में ढालूं। अष्ट कर्मों के इस विश्लेषण ने मुझे जगा दिया है कि मैं अपनी अज्ञानता को समाप्त करूं, अपने पुरुषार्थ को क्रियाशील बनाऊं तथा अपनी स्वरूप विकृति को परिमार्जित करने लगूं। मैं अपने मन, वचन तथा कर्म की तुच्छता - हीनता को समझें, उससे अपने आपको लज्जित अनुभव करूं एवं तुच्छता के स्थान पर उदारता व उच्चता की प्रतिष्ठा करने के सत्प्रयास में संलग्न बन जाऊं। मैं जान गया हूं कि यह तुच्छता धर्माराधना में प्रवृत्ति करने से ही मिट सकेगी। संसार के सभी प्राणियों २०३
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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