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________________ वीर्यान्तराय कर्म है। इसके तीन भेद बताये गये हैं- (अ) बाल वीर्यान्तराय—समर्थ होते हुए और चाहते हुए भी जिसके उदय से जीव सांसारिक कार्य नहीं कर सके, वह बाल वीर्यान्तराय कर्म है। (ब) पंडित वीर्यान्तराय—सम्यक दृष्टि साधु मोक्ष की चाह रखता हुआ भी जिस कर्म के उदय से जीव मोक्ष-प्राप्ति के योग्य, क्रियाएं न कर सके. वह पंडित वीर्यान्तराय है। (स) बाल-पंडित वीर्यान्तराय-देशविरति रूप श्रावक धर्म की आराधना की चाह रखते हुए भी जिस कर्म के उदय से जीव श्रावक की क्रियाओं का पालन न कर सके, वह बाल-पंडित वीर्यान्तराय कर्म है। अन्तराय कर्म की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहुर्त तथा उत्कृष्ट तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है। अन्तराय कर्म के बंध के भी पांच ही कारण हैं -(१) दान में अन्तराय या बाधा डालना (२) लाभ में बाधा डालना (३) भोग में बाधा डालना (४) उपभोग में बाधा डालना तथा (५) वीर्य-प्राण शक्ति में बाधा डालना। अन्तराय कार्मण शरीर प्रयोग नाम कर्म के उदय से भी जीव अन्तराय कर्म बांधता है। अन्तराय कर्म का अनुभाव भी दान, लाभ, भोग, उपभोग तथा वीर्य में विघ्न बाधा होने रूप पांच प्रकार का है। यह अनुभाव स्वतः भी होता है तथा परतः भी। परतः अनुभाव पुद्गल निमित्त, पुद्गल परिणाम तथा स्वाभाविक पुद्गल परिणाम से होता है तो स्वतः अनुभाव अन्तराय कर्म के उदय से दान, भोग आदि में अन्तराय रूप फल के भोगने से होता है। जो जैसा करता है, वैसा भरता है। मैं अनुभव करता हूं कि संसार में अष्ट कर्मों का स्वचालित शासन इतना सन्तुलित एवं सुव्यवस्थित है कि कहीं कोई व्यवधान उत्पन्न नहीं होता है, बल्कि यह शासन समता-भाव का प्रतीक भी है जहां किसी के साथ पक्षपात या भेदभाव होने की कोई संभावना ही नहीं है। जो जैसा करता है, वैसा भरता है। करने के वक्त वह स्वतंत्र होता है किन्तु भरने (फल भोग के समय) के वक्त भरे बिना किसी हालत में छुटकारा नहीं होता यानि कि उस भरने में किसी की कोई मदद भी नहीं चलती। स्वयं करो—यह पुरुषार्थ का विषय है और स्वयं ही भोगो—इसे भाग्य भी मान सकते हैं क्योंकि कर्मवाद का यह सिद्धान्त भाग्य और पुरुषार्थ का सुन्दर समन्वय है तथा विकास के लिये इसमें विशाल क्षेत्र है। कर्मों की सफलता के सम्बन्ध में मुझे वे आप्त वचन याद आते हैं जिनमें कहा गया है कि प्राणियों के सभी अनुष्ठान फल सहित होते हैं। फल भोग किये बिना उनसे छुटकारा नहीं होता क्योंकि वे कर्म अपना फल अवश्य देते हैं। जैसे संधिमुख पर चोरी करते हुए पकड़ा गया चोर अपने चौर्य कार्य से दुःख पाता है, वैसे ही यहां और परलोक में जीव स्वकृत कर्मों से ही दुःख भोगते हैं। फल भोगे बिना कृत कर्मों से मुक्ति नहीं हो सकती है। यह आत्मा अपने कर्मो के अनुसार कभी देवलोक में कभी नरक में और कभी असुरों में आदि विभिन्न योनियों में उत्पन्न होती रहती है। पापी जीव का दुःख न जाति वाले बंटा सकते हैं और न मित्र लोग ही। पुत्र एवं भाई बंधु भी उसके दुःख के भागीदार नहीं होते। केवल पाप करने वाला अकेला ही दुःख भोगता है क्योंकि कर्म कर्ता ही के साथ जाते हैं। द्विपद, चतुष्पद, क्षेत्र, घर, धन, धान्य इन सभी को यहीं छोड़कर परवश हो यह आत्मा अपने कर्मों के साथ परलोक में जाती है और वहां अपने कर्मों के अनुसार अच्छा या बुरा भव प्राप्त करती है। २०२
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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