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________________ आत्म विश्वास के साथ संयम की कठिन साधना में प्रवृत्त हो जाऊं, अपने मन, वचन एवं कर्म के अशुभ योग व्यापार को समाप्त करता चलूं तथा सत्य श्रद्धा के साथ श्रेष्ठ सिद्धान्तों के पालन में एकनिष्ठ बन जाऊं। मैं जानता हूं कि साधक की यह संयम साधना बहुआयामी होगी। सम्यक् श्रद्धा वाला बनेगा तभी सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् आचरण को वरण करने वाला भी बन सकेगा। तभी वह त्याग वृत्ति की ओर उन्मुख भी बन सकेगा। विविध प्रकार के त्याग-प्रत्याख्यानों के अनुसरण से इसी महत्कार्य में सचेष्ट बना रहता है कि धीरे-धीरे वह सांसारिकता ही त्याग करता रहे। पहले श्रेष्ठ पांच सिद्धान्तों के आंशिक पालन करने में प्रवृत्त हो। ताकि वह एक सद्गृहस्थ और एक सुश्रावक बन सके ऐसा सद्गृहस्थ जो अपने घर-परिवार में रहता हुआ भी धर्माचरण में दत्त चित्त बन जाता है और जिसकी अर्थोपार्जन की नीति भी सम्पूर्णतया अहिंसा एवं नैतिकता पर आधारित हो जाती है। जो अपनी गृहस्थी का कार्य चलाने के लिये परिग्रह कमाता है और रखता है किन्तु स्वयं परिग्रहवादी नहीं होता। जो विविध प्रकार के धार्मिक अनुष्ठानों के माध्यम से अपने विकारों को समाप्त करता जाता है तथा अपने भीतर और बाहर चारों तरफ के वातावरण में समता का शान्तिदायक आलोक फैलाता रहता है। जो अपने स्वीकृत व्रतों के छिद्रों को रोकता है, प्रतिक्रमण द्वारा पापों से पीछे हटता है और श्रमणोपासना से स्वयं श्रमण बन जाने के मनोरथ पर निरन्तर चिन्तवन करता रहता है। वह जब ऐसा सद्गृहस्थ बन जाएगा तो प्रगति के पथ पर उसके चरण रुकेंगे नहीं। तब सांसारिकता से विमुख बन कर वह इसी संसार में अपने तथा अन्य प्राणियों के कल्याण कार्य में सर्वतोभावेन संलग्न हो जाने के लिये साधु धर्म अंगीकार कर लेगा। वह साधु धर्म जो तलवार की धार पर चलने जैसा दुष्कर होता है और इतना दुष्कर कि मेरु पर्वत को अपने तराजू से तोलो। वह अपने संयम के तराजू से मेरु पर्वत को भी तोल लेने का सामर्थ्य और पुरुषार्थ दिखायेगा। अपने हृदय में क्रोध के स्थान पर सहिष्णुता, मान के स्थान पर विनम्रता, माया के स्थान पर सरलता और लोभ के स्थान पर सन्तोष को बसा लेने का प्रयास करेगा। यहां तक कि वह अपनी संयमोपलब्धियों को अहंभाव नहीं छू पाए इस ओर सावधान रह सकेगा और न ही उनके द्वारा अपनी कीर्ति की लालसा को कोई स्थान दे सकेगा। अपने सदाचरणमय जीवन को लोकोपकार हेतु विसर्जित कर गन्तव्य की ओर गतिशील होगा। तीसरा सूत्र और मेरा संकल्प तीसरे सूत्र के संदर्भ में मैं संकल्पबद्ध होता हूं कि मैं अपने चरम लक्ष्य को सम्यक् रीति से पहिचानूंगा, मानूंगा और अपनी समस्त वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों को लक्ष्याभिमुखी बनाऊंगा। लक्ष्य के उस उत्कृष्ट बिन्दु पर दृष्टि स्थिर करके ही मैं जान सकूँगा कि वहां से मैं कितनी दूरी पर खड़ा हुआ हूं और मुझे कितना चलना है ? मैं अडिग निश्चय के साथ चलूंगा सत्य श्रद्धा और श्रेष्ठ सिद्धान्तों का सम्बल लेकर । मैं सम्यक्त्व से लेकर श्रावकत्व एवं साधुत्व के सोपानों पर ऊपर से ऊपर चढ़ता जाऊंगा। मेरी उस ऊर्ध्वगामिता का आधार होगा ज्ञान एवं क्रिया का अद्भुत संयुक्तीकरण तथा अपने समस्त विकारों (कर्मों) का क्षयीकरण । मैं अपने उस परिमार्जित आचरण के साथ निर्विकारी बनने में यलरत हो जाऊंगा। १७२
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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