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________________ उठने चाहिये। साधारण सी विधि है कि जब एक पथिक अपने गंतव्य का मार्ग नहीं जानता तो ज्ञाताओं से मार्ग पूछता रहता है और आगे बढ़ता जाता है। बीच-बीच में सन्देह होने पर अपनी मार्ग सम्बन्धी धारणा की पुष्टि भी करवाता रहता है। यही विधि वीतराग देवों ने भी बताई है। पहले मिथ्यात्व के पतनकारक स्वरूप को समझो और उसके दलदल से बाहर निकलो। फिर सम्यक्त्व के प्रकाश को निहारो और अपने आत्म स्वरूप को परखो। उसे परखने पर आवरण दिखेंगे तब आवरणों का भी ज्ञान करो, मल स्वरूप को भी जानो और संयम की शभ क्रिया में सक्रिय बन जाओ। जानते रहो, करते रहो और बढ़ते रहो। सम्यक्त्व के प्रकाश में ही व्रत धारण करने की निष्ठा उत्पन्न होती है। छोटे-छोटे व्रत और त्याग प्रत्याख्यान लेते हए एक एक करके या एक साथ श्रावक के बारह व्रत अंगीकार किये जा सकते हैं। उससे आगे का चरण सर्वांशतः सिद्धान्तनिष्ठ साधु जीवन अंगीकार करने का हो सकता है। संयम की अडिग साधना ही ऊंचे से ऊंचे गुणस्थानों में पहुंचाकर आत्मा को परम समाधि का अक्षय सुख प्रदान कर सकती है। मैं सोचता हूं कि ज्ञान बिन क्रिया और क्रिया बिन ज्ञान की अवस्था को किसी भी स्तर पर अपने जीवनाचरण में न आने दूं और ज्ञान व क्रिया के दोनों पहियों पर संयम का रथ मोक्ष के राजमार्ग पर चलाता रहूं और रत्नत्रय की आराधना में तल्लीन बन कर प्रतिपल उस रथ को आगे और आगे बढ़ाता रहूं। निर्विकारी स्वरूप की ओर मैं सोचता हूं कि वास्तव में 'निर्विकारी स्वरूप की ओर'—यह शब्द समूह एक प्रकार से भ्रामक है क्योंकि मेरा अपना निर्विकारी स्वरूप कहीं बाहर नहीं है जिसकी ओर मैं जाऊं, वह स्वरूप तो मेरे भीतर में ही विराजमान है जिसे मुझे निरावृत्त करना है। निरावृत्त इसलिये कि उस पर आवरण छाये हुए हैं और वे आवरण हैं मेरे ही अपने विकारों के। ये विकार हैं मेरे अपने मोह-महत्त्व के विकार जो राग और द्वेष के बीजों पर अंकुरित होकर विषय और कषाय के रूप में वट वृक्ष की तरह फैलते हैं। फिर मैं प्रमादग्रस्त हो जाता हूं। जितना प्रमाद बढ़ता है, मिथ्यात्व का अँधकार बढ़ता है, मेरा अपना स्वरूप मैल और अंधेरे की हजारों हजार परतों से आवृत्त हो जाता है। मुझे इन्हीं विकारों को पूरी तरह से हटा लेना है, साफ कर लेना है। विकार हटे और मेरा अपना परम ज्ञान एवं अमिट सुखमय स्वरूप स्पष्ट हो जायगा। यही मेरा निर्विकारी स्वरूप होगा, ऐसा स्वरूप जो फिर विकारों में कभी भी किसी भी रूप में लिप्त नहीं बन सकेगा। मैं अपने उसी निर्विकारी रूप में अजरामर हो जाऊंगा-सदा सदा के लिये सिद्ध। ___निर्विकारी स्वरूप में स्थित हो जाना यही मेरा परम और चरम लक्ष्य है। यही मेरे आत्म विकास की महायात्रा का गंतव्य है। इसी गंतव्य पर पहुंचने का मुझे पराक्रम दिखाना है जो सर्वश्रेष्ठ पराक्रम है। पराक्रम और ऐसा सर्वश्रेष्ठ पराक्रम सफलतापूर्वक दिखाना आसान नहीं है यह मैं जानता हूँ। इसके लिये मुझे परम पुरुषार्थ करना होगा-घटाटोप अंधकार से निकलकर सदा प्रकाशमान दिव्यालोक में अवस्थान बना लेने का पुरुषार्थ। यही पुरुषार्थ सम्यक्त्व, संयम और समता का पुरुषार्थ है। मेरा सम्यक्त्व अविचल बनेगा, सुदेव, सुगुरु और सुधर्म पर अडिग आस्था से जो तर्कसंगत भी होगी तो परम श्रद्धास्वरूप भी। तर्क एक सीमा तक मुझे अग्रगामी बनायगा, किन्तु जहां तर्क का क्षेत्र भी समाप्त हो जायगा, वहां मेरी अमित आस्था का क्षेत्र आरंभ होगा कि मैं पूरे १७१
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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