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________________ पर विचार करता हूं तो वर्तमान युग से सम्बन्धित एक कठिन समस्या मेरे सामने आ खड़ी होती है। वह यह कि एक व्यक्ति तो उच्चतम सीमा तक अपरिग्रही तथा अपरिग्रहवादी बन सकता हैं किन्तु क्या पूरे समाज को भी एक सीमा तक परिग्रही या अपरिग्रहवादी बना सकते हैं? मैं इसमें संदेह नहीं करता कि परिग्रह अधिकांशतः आभ्यन्तर वृत्तियों से जुड़ा हुआ रहता है और अल्पांशतः बाह्य परिग्रह के साधनों के साथ। एक व्यक्ति प्राप्त तो बाह्य परिग्रह के साधन ही करना चाहता है जिसके प्राप्त होने पर वह अपना ऐश्वर्य, वैभव व वर्चस्व को बढ़ा सके लेकिन उस बाह्य परिग्रह के साधनों को प्राप्त करने के लिये तथा प्राप्त हो जाने पर उन पर अपना अधिकार बनाये रखने के लिये वह अपनी वृत्तियों को इतनी मोह-मूर्छा तथा आसक्तिमय बना लेता है कि जिनके कारण वह भयंकर से भयंकर दुष्कृत्य तथा अनर्थ कर बैठता है, करता रहता है। इनका उसके व्यक्तिगत जीवन पर ही नहीं, पूरे सामाजिक जीवन पर भी बुरा असर पड़े बिना नहीं रहता है। यह मान लें कि व्यक्तिगत बुराइयों से तो व्यक्ति ही छुटकारा पाने का यल करे किन्तु उन बुराइयों का जो सामूहिक असर हो जाता है, उसे कैसे मिटाया जायगा? निश्चय है कि उसके लिये यल भी सामूहिक ही करना पड़ेगा। वैसे भी वर्तमान युग में सामाजिकता अति घनिष्ट भी हो गई है तो अति जटिल भी बन गई है। इस स्थिति में सामूहिक या सामाजिक प्रयल भी अति आवश्यक हो गये हैं कि जिनके माध्यम से ऐसा सुधरा हुआ सामाजिक वातावरण तैयार किया जाय जिसमें व्यक्ति को अपना सुधार करना आसान बन जाय। परिग्रह वृत्ति एवं परिग्रह संग्रह के सम्बन्ध में भी ऐसे सामाजिक प्रयास अच्छे परिणाम दिखा सकते हैं जो व्यक्ति की सत्ता या सम्पत्ति की लिप्साओं पर सामूहिक प्रतिबंध लगाते हों। मेरी मूल भावना यह है कि व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों प्रकार के प्रयासों से परिग्रह मूर्छा घटानी चाहिये तथा परिग्रह संग्रह पर भी रोक लगानी चाहिये। समाज की व्यवस्था समता पर आधारित होनी चाहिये। वहाँ की आर्थिक परिस्थितियों में भी विषमता मिट जानी चाहिये। लाभ और लोभ के व्यक्तिगत प्रयल इस तरह प्रतिबंधित किये जायं कि सबको अपनी मूल आवश्यकता की सुलभ उपलब्धि के साथ लाभ-लोभ की दिशा में बढ़ने की लालसा या गुंजाइश ही न रहे । अपरिग्रहवादी साम्यता का यही लक्ष्य माना जा सकता है कि भौतिक सत्ता और सम्पत्ति के स्थान पर चैतन्य एवं कर्त्तव्य परायणता का लक्ष्य बने जिससे कि समाज में पदार्थों का कुछ व्यक्तियों के हाथों में केन्द्रीकरण न हो और वे सर्व-जन में विकेन्द्रित बनें। यदि कहीं किसी व्यवस्था-दोष से अन्यथा कुछ केन्द्रीकरण भी हो जाता है तो उसे संविभाग द्वारा मिटाया जाये। निर्वाह के साधन सबको सुलभ हों तथा आसक्तिमूलक संग्रह व संचय को स्थान न रहे। आर्थिक साम्यवाद का ही आदर्श रूप होगी अपरिग्रहवादी साम्यता, जिसके परिणामस्वरूप बाह्य परिग्रह तो समवितरित तथा सन्तुलित होगा ही, परन्तु आभ्यन्तर परिग्रह की कलुषित एवं विकृत वृत्तियाँ समाप्तप्रायः होती चलेगी। मैं ऐसे अपरिग्रही आदर्श समाज की कल्पना करता हूं जो अपने स्वस्थ वातावरण से सिद्धान्तनिष्ठ संयम वृत्ति को अधिकाधिक प्रोत्साहिक बनायेगा। यह अपरिग्रहवाद के मर्मज्ञों पर निर्भर है कि वे वर्तमान अर्थलिप्सु समाज का कायाकल्प कैसे करें तथा कैसे इन विकृतियों को सत्वृत्तियों में ढाल दें? १५८
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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