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________________ संज्ञा चार कारणों से उत्पन्न होती है—(१) परिग्रह की वृत्ति होने से, (२) लोभ मोहनीय कर्म के उदय होने से, (३) सचित्त, अचित्त और मिश्र परिग्रह की बात सुनने और देखने से तथा (४) सदा परिग्रह का विचार करते रहने से। ऐसी संज्ञा, मूर्छा या आसक्ति ही परिग्रह रूप है। किसी भी वस्तु में चाहे वह छोटी, बड़ी, जड़, चेतन, बाह्य, आभ्यन्तर या किसी प्रकार की हो—अपनी हो या पराई हो, उसमें आसक्ति रखना, उसमें बंध जाना या उसके पीछे पड़कर अपने विवेक को खो बैठना परिग्रह हैं। धन सम्पति आदि वस्तुएँ परिग्रह अर्थात् मूर्छा की कारणभूत होने से परिग्रह कह दी जाती हैं किन्तु वास्तविक परिग्रह उन पर होने वाली मूर्छा है। मूर्छा न होने पर चक्रवर्ती सम्राट भी अपेक्षा से अपरिग्रही कहा जा सकता है और मूर्छा होने पर एक भिखारी भी परिग्रही कहलाता है। बाह्य परिग्रह नौ प्रकार का कहा गया है—(१) क्षेत्र -धान्य आदि उत्पन्न करने के खेत भूमि आदि, (२) वास्तु –घर, भूमिगृह, महल आदि, (३) हिरण्य -चांदी घड़ी या बिना घड़ी हुई, (४) सुवर्ण –सोना घड़ा या बिना घड़ा हुआ तथा हीरा, माणक, मोती आदि जवाहरात, (५) धन-गुड़ शक्कर आदि पदार्थ व मुद्रा, (६) धान्य -चावल, गेहूं, बाजरा, मूंग, चना आदि (७) द्विपद –दास, दासी, पक्षी आदि (८) चतुष्पद हाथी, घोड़े, गाय, भैंस, वगैरह एवं (६) कुप्य –सोने, बैठने, खाने, पीने आदि के काम में आने वाली धातु की बनी या दूसरी वस्तुएँ (घर-बिखरी)। आभ्यन्तर परिग्रह के भी ग्रंथि-रूप चौदह भेद कहे गये हैं—(१) हास्य—जिसके उदय से जीव को हंसी आवे, (२) रति –सांसारिक पदार्थों में रुचि हो, (३) अरति-धर्म कार्यों में अरुचि हो, (४) भय–सात प्रकार के भयों की उत्पत्ति हो, (५) शोक-शोक, चिन्ता, रुदन आदि पैदा हो, (६) जुगुप्सा-घृणा उत्पन्न हो, (७) क्रोध-गुस्सा पैदा हो, (८) मान-अहंकार पैदा हो, (६) माया-कपट वृत्ति पैदा हो, (१०) लोभ-लालच, तृष्णागृहित उत्पन्न हो, (११) स्त्रीवेद—स्त्री को पुरुष की इच्छा हो, (१२) पुरुषवेद-पुरुष को स्त्री की इच्छा हो, (१३) नपुंसकवेद–नपुंसक को स्त्री व पुरुष की इच्छा हो तथा (१४) मिथ्यात्व-मोहवश तत्त्वार्थ में श्रद्धा न हो अथवा विपरीत श्रद्धा हो। अपने लक्षणों की दृष्टि से मोह रूप इस परिग्रह के तीस नामों का उल्लेख आया है—(१) परिग्रह (२) संचय (३) चय (४) उपचय (५) निधान (६) संभार (७) संकर (८) आदर (E) पिंड (१०) द्रव्य सार (११) महेच्छा (१२) प्रतिबंध (१३) लोभात्म (१४) महर्षि (१५) उपकरण (१६) संरक्षणा (१७) भार (१८) सम्पातोत्पादक (१६) कलह भाजन (२०) प्रविस्तार (२१) अनर्थ (२२) संस्तव (२३) अगुप्ति (२४) आयास-खेद (२५) अवियोग (२६) अमुक्ति (२७) तृष्णा (२८) अनर्थक (२६) आसक्ति व (३०) असन्तोष । मैं इसे सत्य मानता हूं कि जो अपरिग्रही (अकिंचन) हो जाता है, उसका लोभ नष्ट हो जाता है। जब लोभ नष्ट हो जाता है तो उसकी तृष्णा नष्ट हो जाती है। जब तृष्णा नष्ट हो जाती है तो उसका मोह नष्ट हो जाता है। जब मोह नष्ट हो जाता है तो उसका दुःख नष्ट हो जाता है। भौतिक उपलब्धियों की इच्छाएं आकाश के समान अनन्त होती हैं और इनकी पूर्ति में ज्यों ज्यों लाभ होता है त्यों-त्यों लोभ बढ़ता है। इस प्रकार लाभ से लोभ निरन्तर बढ़ता ही जाता है। दो माशा सोने से सन्तुष्ट होने वाला करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं से भी सन्तुष्ट नहीं हो पाया। मैं इन शाश्वत-प्रभावी बातों १५७
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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