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________________ व्रत का पालक है, वरना असंविभागी को चोर कहा गया है। इस मंतव्य को हमें समाज के विस्तृत क्षेत्र के परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। सोचें कि एक व्यक्ति अर्थोपार्जन करता है जो अपनी कुशलता अथवा सुसाधन संयुक्तता से अच्छा अर्जन कर लेता है या यों कहिये कि दूसरों से अधिक अर्जन कर लेता है। जहाँ तक उसने अधिक अर्थोपार्जन किया है किन्तु साथ ही संविभाग की वृत्ति रखता है व प्रवृत्ति करता है, तब तक वह उपार्जन चोरी नहीं है। परन्तु यदि वह उस उपार्जन को अपने पास अपने ही लिये रख लेता है और उसका संविभाग नहीं करता है तो उसका उपार्जन अनुचित है। इसका सीधा सा तात्पर्य है कि अर्थोपार्जन की विधि में अन्य प्राणियों के हित की भावना रहती हो और उपार्जित-संचित पदार्थों के यथास्थान सवितरण की आस्था हो वह अचौर्य है तथा उपार्जन की विधि में परहित का किंचित भी ख्याल न रखा जाता हो एवं उपार्जित-संचित पदार्थों के यथा स्थान संवितरण की आस्था न हो वह चौर्य कर्म परिधी में समाविष्ट हो जाता है। मेरा चिन्तन चलता है कि अर्जन वह अपनी कुशलता या साधन सामग्री (पूंजी आदि) से करता है, फिर उस अर्जन को निन्दनीय क्यों माना गया है ? मैं अर्जन को निन्दनीय इसलिये कह रहा हूं कि यदि वह उसका संविभाग कर देता है तो यह कह सकते हैं कि उसने उसका प्रायश्चित कर लिया और संविभाग नहीं करता तो यह माना गया है कि वह अस्तेय व्रत की आराधना नहीं करता। संविभाग कैसे करें-उसका भी कुछ स्पष्टीकरण आप्त पुरुषों ने दिया है। अधिक अर्थोपार्जन करने वाले के पास अपने निर्वाह से अधिक सामग्री है तो संविभाग की दृष्टि से उसे अपनी प्राप्त सामग्री का सम्यक रीति से वितरण कर देना चाहिये। वितरण की सम्यक रीति क्या होगी? जिसको जिस सामग्री की आवश्यकता हो, उसे वह सामग्री देने में संकोच न हो। सामाजिक आवश्यकता-पूर्ति को इस रूप में व्यक्ति का आवश्यक कर्तव्य कहा गया है। यथायोग्य अवसर पर यथायोग्य लोगों को यथायोग्य रीति से अपनी प्राप्त सामग्री का यथोचित वितरण कर देना अस्तेय या अचौर्य है। संविभाग की दूसरी बात यह कि वह अपने पास सामग्री का संग्रह भी करे तो अपने लिये नहीं, जरूरत मंद आवश्यक मंद अन्य प्राणियों के लिये करें, ताकि आवश्यकता होने पर यथावसर उन्हें वह सामग्री सहायता रूप दी जा सके। संविभाग की तीसरी बात और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है कि अधिक अर्थोपार्जन भले किया है, लेकिन स्वयं अप्रमाण भोजी (भोगी) न हो, भोजन भी वह संयत करे और अन्य सामग्रियों का भोग-उपभोग भी वह मर्यादित बनावे। यदि अधिक अर्थोपार्जन करने वाला सामाजिक आवश्यकता-पूर्ति की ओर ध्यान नहीं देता, संग्रह या संचय का उपयोग अपने साथियों के लिये नहीं करता अथवा अपने ही सुख भोग के लिये प्राप्त सामग्री बेमाप और बेहिसाब खर्च करता है तो वह असंविभागी है और अस्तेय व्रत का आराधक नहीं है। जो अस्तेय व्रत का आराधक नहीं माना जायगा, वह निश्चय ही उस प्रकार स्तेय या चौर्य कर्म कर रहा है। ____ मैं अपनी दृष्टि को व्यापक बनाता हूं और सोचता हूं कि आप्त पुरुषों ने आज के अर्थ युग की जटिलताओं और समस्याओं को ज्ञान में देख लिया था और उन्होंने इन जटिलताओं के समाधान रूप में ही संविभाग का मंत्र प्रदान किया। जो आज की अर्थोपार्जन प्रणाली से परिचित हैं, वे जानते हैं कि आवश्यकता से अधिक अर्थ का उपार्जन करना नैतिकता से संभव नहीं है। अधिकांशतया समाज में अधिक होशियार लोग कम-समझ लोगों की मेहनत का फल चुराते हैं तभी अधिक अर्थोपार्जन संभव होता है। अनैतिक अर्थ संचय का तो आधार ही चौर्य अथवा शोषण होता है वर्तमान युग मशीनी युग है और इसमें एक साथ हजारों लोग श्रम करते हैं। श्रमिक का श्रम ही १५०
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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