SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्य से विपरीत मृषावाद होता है तथा मृषा वचन भी दस प्रकार से निकलते हैं -(१) क्रोध से निकलने वाला (२) मान से निकलने वाला (३) माया से निकलने वाला, (४) लोभ से निकलने वाला, (५) प्रेम से निकलने वाला, (६) द्वेष से निकलने वाला, (७) हास्य (हंसी) से निकलने वाला, (८) भय से निकलने वाला, (६) आख्यायिका (कहानी) के बहाने निकलने वाला तथा (१०) उपघात -प्राणियों की हिंसा से निकलने वाला वचन । इस प्रकार सत्यामृषा याने मिश्र भाषा के भी दस प्रकार होते हैं—(१) उत्पन्नमिश्रिता, (२) विगतामिश्रिता, (३) उत्त्पन्न-विगत मिश्रिता, (४) जीवमिश्रिता, (५) अजीव मिश्रिता, (६) जीवाजीव मिश्रिता, (७) अनन्त मिश्रिता, (८) प्रत्येक मिश्रिता, (६) अद्रामिश्रिता व (१०) अद्रद्रामिश्रिता। सत्य–निर्णय की दृष्टि से भाषा के चार भेद किये गये हैं –(१) सत्य भाषा–विद्यमान जीवादि तत्त्वों का यथार्थ स्वरूप कहना। (२) असत्य भाषा—जो पदार्थ जिस स्वरूप में नहीं है, उन्हें उस स्वरूप में कहना। (३) सत्यामृषा (मिश्र) भाषा -जो भाषा सत्य भी हो और मृषा भी। (४) असत्यमृषा (व्यवहार) भाषा—जो भाषा न सत्य है और न असत्य है। ___असत्य भाषा भी चार प्रकार की बताई गई है—(१) सद्भाव प्रतिषेध–विद्यमान वस्तु का निषेध करना, (२) असद्भावोद्भावन—अविद्यमान वस्तु का अस्तित्व बताना, (३) अर्थान्तर—एक पदार्थ को दूसरा पदार्थ बताना एवं (४) गर्हा-दोष प्रकट कर किसी को पीड़ाकारी वचन कहना। ___ सत्य के विश्लेषण एवं अन्वेषण के महत्त्व को आत्मसात् कर मैं सदा सत्य की आराधना करूंगा, सत्य से सम्पन्न होकर जगत् के सभी प्राणियों के साथ मैत्री भाव रखूगा तथा सत्य पर दृढ़ रहूंगा क्योंकि लोक में जो भी मंत्र, योग, जप, विद्या, जृम्भक, अस्त्र,शस्त्र, शिक्षा और आगम हैं, वे सभी सत्य पर स्थित हैं तथा सत्यवादी पुरुष माता की तरह लोगों का विश्वासपात्र होता है, गुरु की तरह पूज्य होता है और स्वजन की तरह सभी को प्रिय लगता है। अस्तेय की ओजस्विता अस्तेय शब्द भी अहिंसा की तरह निषेध रूप है। चौर्य कर्म करना स्तेय या चौर्य कहलाता है तो इसका प्रतिपक्ष अस्तेय या अचौर्य होता है। इसे अदत्तादान-विरमण भी कहते हैं। इसका सामान्य अर्थ यह होता है कि जो दी नहीं गई है या बिना आज्ञा ली गई है, वह चोरी कहलाती है। चोरी नहीं करना अस्तेय है याने कि दूसरे की कोई भी चीज आज्ञा लेकर ही ग्रहण करनी चाहिये। ___अस्तेय व्रत के संदर्भ में मैं जब आप्त वचनों का स्मरण करता हूं तो मुझे प्रतीति होती है कि ज्ञानियों ने इस व्रत का लक्ष्य बहुत ही गहरा और व्यापक रखा है। कहा गया है कि जो असंविभागी है—प्राप्त सामग्री का ठीक तरह से वितरण नहीं करता है और असंग्रह रुचि है याने कि साथियों के लिये समय पर उचित सामग्री का संग्रह कर रखने में रुचि नहीं रखता है तथा अप्रमाण भोजी है अर्थात् मर्यादा से अधिक भोजन करने वाला है, वह अस्तेय व्रत की सम्यक् आराधना नहीं कर सकता है। इसके विपरीत जो संविभागशील है—प्राप्त सामग्री का ठीक तरह से वितरण करता है और संग्रह व उपग्रह में कुशल है याने कि साथियों के लिये यथावसर भोजनादि सामग्री जुटाने में दक्ष है, वही अस्तेय व्रत की सम्यक् आराधना कर सकता है। मैं गंभीरतापूर्वक सोचता हूं कि आप्त-पुरुषों ने अस्तेय व्रत के संदर्भ में संविभाग को इतना महत्त्व क्यों दिया है ? संविभाग का अर्थ होता है समान रूप से विभाजन । संविभागी है वह अचौर्य १४६
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy