SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हैं और चूंकि अधिकांश अपूर्ण लोगों के मन में जो यह हठाग्रह जम जाता है कि उनका विचार ही सत्य है, उससे बढ़कर सत्य का अहित दूसरा नहीं होता है। पूर्ण सत्य के निकट पहुंच जाना मैं बहुत दूर की बात मानता हूं, अतः मैं यह विचार रखता हूं कि प्रत्येक व्यक्ति के विचारों में कुछ न कुछ सत्यांश सामान्यतया रहता है अतः मुझ जैसे सत्यान्वेषी की यह चेष्टा रहनी चाहिये कि मैं किसी भी अन्य के विचार में स्थित सत्यांश समादर करूं और उस सत्यांश को उद्घाटित करूं । असत्य को छोड़ता रहूं और सत्य को ग्रहण करता रहूं। इस प्रकार सत्यांशों का चयन ही एक दिन मुझे पूर्णं सत्य का साक्षात्कार करा सकेगा । मैं सर्वत्र फैले सत्यांशों का चयन कैसे करूंगा- इस पर मुझे गहरा विचार करना होगा । सत्य के कई पहलू होते हैं। यदि उन सभी पहलुओं को मैं नहीं समझं तथा एक पहलू पकड़ कर ही सत्य का हठ करलूं तो वह हठ मुझे सत्य से दूर फैंक देगा। उदाहरण के तौर पर सोचूं कि एक व्यक्ति पुत्र भी है, पिता भी है, पति भी है और इस प्रकार भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से भिन्न-भिन्न प्रकार से सम्बन्ध रखता है। ये सभी पहलू सही हैं । किन्तु यदि मैं हठ करलूं कि मैं तो पिता ही हूं तो क्या यह सच होते हुए भी झूठ नहीं हो जायगा ? यह सच है कि वह अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता भी है। तो अपने पिता की अपेक्षा से पुत्र भी है। जहाँ तक विभिन्न अपेक्षाओं को नजर में रखते हुए वह 'भी' का प्रयोग करता है तो वे सब पहलू सच है लेकिन जहां उसने एक पहलू पद 'ही' लगा लिया तो वह एकान्तवाद होकर झूठ हो गया। सात अंधों और हाथी की कहानी सभी जानते हैं । जब दृष्टिहीन वे लोग हाथी के एक एक अंग को पकड़ कर उसको 'ही' हाथी बता रहे थे तब वे आंशिक रूप से सच कहने के बावजूद झूठे कहलाये । और जब किसी नैत्रधारी ने उनको यह रहस्य बताया कि तुम सभी अंगों को मिला लो तो पूरा हाथी बन जायगा, तब वे सभी सच हो गये । इस तरह मैं देखता हूं कि इस संसार में अधिकांश लोग अपने सत्यांश को ही पूर्ण सत्य बताकर विवाद और संधर्ष करते रहते हैं । वे लोग अपने हठ को छोड़ते नहीं और दूसरे के सत्यांश को समझना चाहते नहीं, जिससे विचार संधर्ष चलता रहता है। विचार संघर्ष जितना बढ़ता है, उतना मनभेद और कर्मद्वन्द्व भी बढ़ता जाता है। कहते हैं कि मतभेद हो लेकिन मनभेद नहीं होना चाहिये - उसका आशय मैं यही समझता हूं कि मतभेद स्वाभाविक है किन्तु यदि उस मतभेद को अनेकान्त, स्यात् अथवा सापेक्षता की रीति से समझलें तो मनभेद की स्थिति तो पैदा ही नहीं होती है बल्कि मतभेद भी मिट जाते हैं। वहां विचार समन्वय की सदाशयता फैल जाती है । अनेकान्त, स्यात् या सापेक्षता का यही मर्म है कि सत्य को उसके अनेक पहलुओं से परखो, स्यात् अस्ति और स्यात् नास्ति के तराजू में तोलो तथा सभी अपेक्षाओं से सत्य के विराट स्वरूप को जानो । मैं अनुभव करता हूं कि इस संसार में मुख्य रूप से दो ही प्रकार के संधर्ष होते हैं। एक तो होता है स्वार्थों का संघर्ष और दूसरा विचारों का संघर्ष । स्वार्थों का संघर्ष इस कारण फैलता है कि मनुष्य अहिंसा का आचरण नहीं करता। अपने ही उचित - अनुचित सभी स्वार्थ पूरे कर लेना चाहता है किन्तु दूसरों के उचित हित को भी काटता रहता है। ऐसा जीवन के आचरण में अहिंसा के अभाव से होता है क्योंकि एक अहिंसावादी एक ओर अपने स्वार्थों को उचित आवश्यकता से अधिक फैलाता नहीं तो दूसरी ओर अपने स्वार्थों से भी ऊपर दूसरों के हितों को पहले स्थान देता है । हृदय का ऐसा उदारवाद ही टकराव समाप्त कर सकता है। उसी प्रकार हृदय का ऐसा उदारवाद १४७
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy