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________________ का क्रम टूट जाय । किन्तु जब सामाजिक शक्ति के प्रयोग से सुन्दर धरातल का निर्माण हो जाय तो शक्ति के ऊंचे-नीचे स्तरों पर रहे हुए व्यक्तियों को भी चलना आसान हो जायगा । वर्तमान वातावरण की दृष्टि से मैं इसको इस रूप में भी समझ सकता हूं कि अपने नैतिक एवं आध्यात्मिक प्रयासों से व्यक्ति समाज में फैली हुई आर्थिक विषमता को दूर करने की दिशा में कार्यरत होता है, उस समय सामाजिक प्रयासों के रूप में समाजवाद, साम्यवाद या ऐसी ही किसी विचारधारा का प्रयोग किया जाता है तो वह विषमता अधिक आसानी से दूर की जा सकती है। अतः इस दृष्टि से समग्र आत्माओं में एकरूपता की मान्यता समाज और व्यक्ति में अधिक समरसता उत्पन्न कर सकती है । दूसरा सूत्र और मेरा संकल्प मैंने इस दूसरे सूत्र के संदर्भ में यह जान लिया है कि मैं प्रबुद्ध और सदा जागृत हूँ। मेरा 'मैं' स्वयं अपना ज्ञाता है और इसी कारण वह सदा जागृत रह सकता है। जो अपने को जान लेता है, वह सबको जान लेता है तथा जो सबको जान लेता है, वह अपने को भी जान लेता है । स्वरूप ज्ञान ही वास्तव में विश्व-ज्ञान होता है । स्वरूप दर्शन ही जगत्-दर्शन है। इस कारण मैं सोच लेता हूं कि इस संसार में मेरा अपना क्या है तथा क्या मेरा नहीं है। जीव और अजीव की युति में अपने निज के स्वरूप को मैं समझ लेता हूँ और जड़ तत्त्व को समझ कर उससे सम्बन्ध त्यागने के सारे यत्न आरंभ कर देता हूँ। इस दृष्टि से एक ओर मैं पदार्थ-मोह को छोड़ता हूँ और अपने शरीर पर से भी ममता हटाता हूं तो दूसरी ओर पदार्थ-मोह के कारण पैदा होने वाली अपनी विकार वृत्तियों को भी मैं परिमार्जित, संशोधित एवं संशुद्ध बनाता हूँ । येही यत्न हैं जिनके कारण मैं मानता हूं कि मेरा आत्म-स्वरूप उज्ज्वल बनेगा तथा मेरी आत्मा मुक्ति के गंतव्य की दिशा में आगे बढ़ेगी । अतः मैं संकल्प लेता हूँ कि संसार के जड़ पदार्थों को मैं कभी अपने नहीं मानूंगा। अपने ही शरीर को भी अपना नहीं मानूंगा। नहीं मानने के साथ ही मैं इन पर से अपना ममत्व भी घटाते हुए नष्ट कर दूंगा। मोहग्रस्तता से उत्पन्न मिथ्या श्रद्धा, मिथ्या ज्ञान तथा मिथ्या आचरण को भी मैं अपना नहीं मानूंगा तथा सम्पूर्ण मिथ्यात्व के अंधकार से बाहर निकलूंगा एवं अपने मन, वचन एवं कर्म की क्रियाओं के कारण पुनः उस अंधकार में नहीं जाऊंगा । मैं संकल्प लेता हूं कि पर-पदार्थों के प्रति उपजे अपने प्रगाढ़ मोह को अपनी साधना के अभ्यास से समाप्त करके एवं पाप कार्यों से शनैः शनैः ही सही पीछे हटकर मैं सम्यक्त्व के आलोक में पग घरूंगा तथा सदा सम्यक् श्रद्धा, सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् आचरण से अनुप्राणित रहूंगा। मैं अपने सम्यक्त्व की अवधारणा को नवतत्त्व के ज्ञान पर आधारित रखूंगा ताकि वह कभी डगमगायगी नहीं । सम्यक्त्व को परिपुष्ट बनाने की प्रक्रिया में मैं सदैव आत्म-नियंत्रण आत्मालोचना तथा आत्म-समीक्षण की पद्धति को अपनाऊंगा ताकि मेरी आत्मा के मूल गुण प्रकट होते रहें और वह अपने विशुद्ध स्वरूप के प्रति निष्ठा धारण कर 1 मेरा यह संकल्प होगा कि मैं स्वयं के आत्म-विकास को साधता हुआ संसार की समग्र आत्माओं के विकास में कार्यरत बनूंगा जिसके कारण मेरा आत्म-विकास भी संपुष्ट बन सकेगा। मैं आत्म विसर्जन की उस भूमिका तक बढ़ चलूंगा जहां संसार की समस्त आत्माओं में एकरूपता के दर्शन होते हैं। १२६
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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