SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मिथ्यात्व-सम्यक्त्व का ऐसा संघर्ष मेरे भीतर निरन्तर चल रहा है —प्रत्येक क्रिया पर चलता है, कभी उग्र होता है तो कभी मन्द, किन्तु सन्तोष का विषय यही है कि मैं प्रबुद्ध हूँ, सदा जागृत हूँ। समग्र आत्माओं की एकरूपता मैंने इस सम्पूर्ण विश्लेषण से ज्ञान किया है कि संसार में परिभ्रमण करने वाली समग्र आत्माओं में अपने मूल गुणों की दृष्टि से एकरूपता विद्यमान हैं जैसी कि सिद्धात्माओं की एकरूपता है। यह एकरूपता है—यह एक सत्य है। सत्य तो है किन्तु आवश्यकता इस बात की भी है कि मैं समग्र आत्माओं की इस एकरूपता को मानूं । होने के साथ अगर मानना नहीं हो तो अभिवांछित व्यवहार का निर्माण नहीं हो सकता है। जब मैं हृदय से इस एकरूपता को स्वीकार करता हूं तो मेरा आचरण इसी स्वीकृति पर आधारित होगा। __मैं तभी यह सोच पाऊंगा कि मैं दुःख नहीं चाहता और सुख चाहता हूं, उसी प्रकार सभी प्राणी दुःख नहीं चाहते, सुख चाहते हैं तो मैं अपने प्रत्येक क्रिया-कलाप में इस बात का ध्यान रखूगा कि मैं अपनी तरफ से किसी भी प्राणी को दुःख नहीं दूं और अपनी शक्ति के अनुसार उनके दुःख दूर करूं एवं उन्हें सुख देने का प्रयास करूं। मेरी यह मान्यता मेरे आचरण में उतर कर सामाजिक व्यवहार में एक मूल्य की स्थापना करेगी। तब यह स्पष्ट होगा कि सबके साथ समतापूर्ण व्यवहार एक सामाजिक मूल्य है और इसको ही आधार मान कर सभी प्राणियों को अपना पारस्परिक व्यवहार सुनिश्चित करना चाहिये। तभी सामाजिक जीवन में अहिंसा प्रवेश पा सकेगी, क्योंकि सभी इस वस्तुस्थिति को मान लेंगे कि किसी भी प्राणी के प्राणों को दुःखित करना हिंसा है तथा प्रत्येक प्राणी के प्राणों की रक्षा करना अहिंसा है। अहिंसा-पूर्ण व्यवहार के साथ ही इस आत्मीय भावना का विकास होगा कि जीओ और जीने दो। यहाँ पर मैं इस तथ्य को हृदयंगम करना चाहूंगा कि यद्यपि व्यक्ति-व्यक्ति के संगठन से ही समाज का निर्माण होता है फिर भी व्यक्ति की शक्ति से भी ऊपर एक सामाजिक शक्ति का भी निर्माण हो जाता है। अहिंसापूर्ण आचरण से प्रत्येक व्यक्ति अपने प्रत्येक साथी तथा अन्य प्राणी के प्रति अपने हार्दिक सहयोग से सम्बन्धित होगा तो सम्पूर्ण सामाजिक आचरण को भी इस रूप में ढालेगा कि वह सामाजिक शक्ति सबको आगे बढ़ाने में सहायक बने । व्यक्ति अपने स्तर पर कार्य करता है तो इस सामाजिक शक्ति का कार्य सभी प्राणियों को आधार मान कर सामूहिक हित के रूप में संचालित होता है। __ मैं यों मानता हूं कि तब समाज और व्यक्ति एक सामूहिक शक्ति के ऐसे दो छोर बन जाते हैं जो दोनों ओर से प्राणियों को अपने व्यवहार में विकास लाने की प्रेरणा देते हैं। व्यक्ति अपने व्यक्तिगत प्रयासों में संलग्न होता है तो सामाजिक शक्ति के द्वारा सर्वत्र ऐसे वातावरण का विकास किया जाता है जिसमें व्यक्ति के अपने विकास के प्रयल अधिक सुविधा से सफल बन सकते हैं। इसे इस तरह समझें कि व्यक्ति अपने प्रयासों में अपने पांवों की शक्ति को सुदृढ बनाता है ताकि यह सुस्थिर गति से चल सके तो सामाजिक प्रयासों का यह लक्ष्य होना चाहिये कि उनके द्वारा ऊबड़-खाबड़ व कांटों भरे धरातल को समतल और साफ बनाया जाय। यदि धरातल कठिनाइयों से भरा हआ ही रहे तो व्यक्तियों को अपनी गति बनाने में बहत ज्यादा शक्ति का व्यय करना पड़ेगा और हो सकता है कि उस परिस्थिति में कई कम शक्ति वाले व्यक्ति अपनी चाल को ठीक नहीं कर पावें और उनके विकास १२८
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy