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________________ से होता है। का होती है जात्मा की मेरी धारणा है कि यही स्थिति मेरी आत्मा की भी है। चेतना का प्रवाह या आत्मा की शक्तियाँ कभी भी अस्तित्वहीन नहीं होती है. मात्र उनकी प्रभा निष्तेज हो जाती है। उसका वाला ही कारण होता है। कर्मों का चढ़ा हुआ मैल अपने ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप की कठिन साधना से धो-पौंछ डालूं तो मेरा अटल विश्वास है कि मेरा भी आत्म स्वरूप सिद्ध स्वरूप की परम उज्ज्वलता का वरण कर लेगा। महत्त्वपूर्ण यही पुरुषार्थ हैं कि कर्म मैल को परी तरह से साफ कर लिया जाय तो इन चार मार्गों से संभव है—(१) सम्यक् ज्ञान, (२) सम्यक् दर्शन, (३) सम्यक् चारित्र एवं (४) तपाराधन। सत्पर प्ररूपणा-मोक्ष सत्स्वरूप है क्योंकि मोक्ष शुद्ध एवं एक पद है। संसार में जितने भी एकपद वाले पदार्थ हैं, वे सब सत्स्वरूप हैं—जैसे घट पट आदि । दो पद वाले पदार्थ सत् और असत् दोनों हो सकते हैं जैसे खरश्रृंग या बंध्यापुत्र असत् है तो गौ-शृंग, राजपुत्र सत् स्वरूप हैं। अतः मोक्ष का एक पद वाच्य होने से सत्स्वरूप है। जिन मार्गणाओं (उपलब्धियों) से युक्त जीव मोक्ष जा सकते हैं, वे मार्गणाएँ मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, त्रसकाम, भावसिद्धिक, संज्ञी, यथाख्यात चारित्र, क्षायिक सम्यक्त्व, अनाहारक, केवल ज्ञान और केवल दर्शन हैं। इनके अतिरिक्त चार मार्गणाओं— कषाय, वेद, योग एवं लेश्या से युक्त जीव मोक्ष नहीं जा सकते हैं। मोक्ष के विभिन्न द्वारों का वर्णन इस प्रकार हैं-(१) द्रव्य द्वार सिद्ध जीव अनन्त हैं, (२) क्षेत्र द्वार—लोकाकाश के असंख्यातवें भाग में सब सिद्ध अवस्थित हैं (३) स्पर्शन द्वार—लोक के अग्रभाग में सिद्ध रहे हुए हैं, (४) काल द्वार–एक सिद्ध की अपेक्षा से सिद्ध जीव सादि अनन्त हैं और सब सिद्धों की अपेक्षा से सिद्ध जीव अनादि अनन्त हैं। (५) अन्तर द्वार—सिद्ध जीवों में अन्तर नहीं हैं क्योंकि कोई पुनः संसार में आकर जन्म नहीं लेता तो सब सिद्ध केवल ज्ञान व केवल दर्शन की अपेक्षा से एक समान होते हैं, (६) भाग द्वार—सिद्ध जीव संसारी जीवों के अनन्तवें भाग हैं। (७) भावद्वार-औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक रूप पांच भावों में से सिद्ध जीवों में केवल ज्ञान व केवल दर्शन रूप क्षायिक भाव और जीवत्व रूप पारिणामिक भाव ही होते हैं, (८) अल्प बहुत्व द्वार–लिंग की अपेक्षा से सबसे थोड़े नपुंसक सिद्ध, स्त्रीसिद्ध उनसे संख्यातगुणे अधिक और पुरुषसिद्ध उनसे संख्यातगुणे अधिक होते हैं। इस प्रकार आत्मा का कर्म रूपी बंधन से सर्वथा छूट जाना तथा सम्पूर्ण आत्मा के प्रदेशों से सभी कर्मों का क्षय होना 'मोक्ष' कहलाता है। कभी मेरे मन में शंका उठती है कि मोक्ष है भी या नहीं। तभी मुझे आप्त वचनों का ध्यान आता है कि जिनमें संशय के प्रकार भी बताये हैं तो उनका समाधान भी किया गया है। संशय के बिन्दु ये हैं—(१) यदि मोक्ष नहीं है तो क्या आत्मा दीपक के समान है जो जैसे दीपक तो उसका अस्तित्व भी समाप्त हो जाता है ? (२) क्या कर्म और जीव का सम्बन्ध जैसे अनादि है वैसे अनन्त भी है ? अथवा (३) क्या राग, द्वेष, मद, मोह, जन्म, जरा, रोग, आदि दुःखों के क्षय हो जाने पर आत्मा का मोक्ष हो जाता है और फिर भी उसका अस्तित्व बना रहता है ? इन सन्देहों को दूर करके सही समाधान इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है कि दीपक की तरह आत्मा का सर्वनाश मानना उचित नहीं है क्योंकि किसी भी वस्तु का सर्वनाश नहीं होता है। दूध की पर्याय दही में तो घड़े की पर्याय ठीकरों में बदल जाती है। उसी प्रकार दीपक बुझ जाने के बाद वह अंधकार की पर्याय में बदल जाता है। दीपक भी पहले चक्षुरिन्द्रिय से जाना जाता है और बुझने पर घ्राणेन्द्रिय से जाना जाता है जिससे प्रमाणित है कि उसका सर्वथा समुच्छेद नहीं होता है। इसी प्रकार आत्मा का भी मोक्ष हो जाने पर उसका सिद्ध स्वरूप बन जाता है। इस कारण कर्म जीव का सम्बन्ध अनादि १११
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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