SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्योंकि कैसे भी कर्मों का बंध हो वह चेतन-जड़ संयोग की नींव को नहीं तोड़ता है जबकि इस संयोग की बुनियाद को पूरी तरह से नेस्तनाबूद करने के बाद ही मेरी आत्मा को पूर्ण स्वतंत्रता मिल सकेगी। सभी कर्मों का बंध समाप्त हो जायगा तभी उनका फल भोग भी समाप्त होगा। पाप कार्यों से निवृत्ति इसलिये अनिवार्य होती है कि संसार रूपी महासागर में गहरे डूब जाने से अपनी आत्मा की रक्षा करूं तो पुण्य कार्यों की प्रवृत्ति से मुझे वे साधन सुलभ हो सकेंगे जिनकी सहायता से मैं : कुशलता एवं सफलता पूर्वक उस महासागर के पार पहुँच सकूँ। किन्तु यह भी मैं जानता हूँ कि इस महासागर के उस पार पहुँच जाने के बाद वहाँ की भूमि पर मैं अपना पांव तभी रख सकूँगा जब मैं पार पहुंचाने वाली नाव या जहाज को भी छोड़ दूं। एक कर्म डूबोता है तो दूसरा कर्म तैराता है, लेकिन महासागर से पार पा लेने के बाद दोनों कर्मों को त्यागना आवश्यक हो जाता है। पाप कर्मों का क्षय कर दिया जाय परन्तु जब तक पुण्य कर्मों को भी मैं नहीं खपाऊंगा, तब तक मेरा मोक्ष नहीं हो सकेगा। जड़-चेतन संयोग रूप सांसारिकता की पूर्ण समाप्ति तभी प्रकट होगी जब सम्पूर्ण क्रियाएँ एवं सम्पूर्ण कर्म बंधन भी समाप्त हो जायेंगे। ___ मैं सोचता हूं कि जब तक पाप कार्यों से सम्पूर्णतया निवृत्ति संभव नहीं बनती है, तब तक मुझे पुण्य कर्म के बंध के शुभ प्रयास करते रहने चाहिये। पुण्य के प्रतिफल रूप जो अनुकूल संसाधन उपलब्ध होते रहेंगे, उनकी सहायता से मुझे मेरी साधना में अधिकाधिक शक्ति प्राप्त होती रहेगी। मोक्ष का चरम चरण यह मेरी आत्मा के पराक्रम और पुरुषार्थ का चरम चरण होगा कि मैं अपनी सर्व कर्म बंधन समाप्ति के साथ ही मोक्ष की प्राप्ति करलूं। इस दृष्टि से विभिन्न स्तरों पर पुण्य कर्म के उपार्जन की विभिन्न स्थितियाँ रहती हैं। पहले स्तर पर जब तक कि मनुष्य जन्म आर्य क्षेत्र आदि की धर्माचरण की अनुकूलताएँ न मिलें-पुण्य को उपादेय मानना होगा, कारण इन पुण्य प्रकृतियों की प्राप्ति के बिना मुझे चारित्र की प्राप्ति ही संभव नहीं हो सकेगी। परन्तु जब मुझे चारित्र की प्राप्ति हो जायगी तथा एक साधक की अवस्था में जब मैं अवस्थित हो जाऊँगा तब पुण्य मेरे लिये उपादेय न रहकर मात्र ज्ञेय हो जायगा। और आत्मा को चौदहवें सर्वोच्च गुण स्थान में चारित्र की पूर्णता मिल जाने पर यही पुण्य भी हेय हो जाता है क्योंकि उसको त्यागे बगेर मोक्ष के महिमामय क्षेत्र में प्रवेश नहीं मिल सकता है। सभी कर्म प्रकृतियों का सर्वथा क्षय होने पर ही मेरी आत्मा का चरम चरण मोक्ष के महात्म्य का वरण करेगा। मुझे समझना चाहिये कि यह मोक्ष क्या होता है, किस मार्ग से मोक्ष की तरफ आगे बढ़ा जा सकता है और किन द्वारों से मोक्ष के महल में प्रवेश मिलता है ? __ अनादिकाल से संसार में जड़ के साथ आबद्ध इस आत्मा को जड़ के बंधन से पूर्णतया मुक्त कर लेने का नाम ही मोक्ष है। जैसे एक दर्पण पर मैल और कालिख जम जाती है तो उसमें स्वरूप दर्शन नहीं हो सकता है। यदि मैल और कालिख की परत हल्की हुई तो उसमें हल्की ही सहीप्रतिच्छाया दिखाई दे सकती है। किन्तु मैल और कालिख की परतें यदि एक पर एक करके कई चढ़ी हुई हो तो उसमें प्रतिबिम्ब की तनिक झलक भी नहीं देख सकेंगे। तो क्या उस समय यह माना जा सकता है कि दर्पण की दर्शन क्षमता ही नष्ट हो गई है ? कोई यह नहीं मानेगा बल्कि यही कहेगा कि दर्पण पर जमे मैल को मल मलकर धो-पौंछ लीजिये और फिर देखिये कि उसकी मूलरूप में रही हुई दर्शन क्षमता पुनः प्रकट हो जाती है या नहीं। ११०
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy