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________________ होने लगते हैं। इस प्रक्रिया को उपशम या क्षम कहते हैं। कर्मों के उपशम की क्रिया भी अधूरी कहलाती हैं क्योंकि पूर्ण क्षय के बिना पूर्ण आत्म-विकास संभव नहीं होता है। राख के ढेर के नीचे दबे हुए अंगारे कभी भी उघड़ जाने पर तथा हवा का बहाव पाने पर फिर से भड़क सकते हैं और फिर से जल व जला सकते हैं अतः उन अंगारों को पूरी तरह बुझाये बिना निश्चिन्तता नहीं ली जा सकती है। उसी प्रकार उपशमित कर्मों की अवसर पाकर पुनः सक्रियता ग्रहण करने की आशंका बनी रहती है, इस कारण लक्ष्य को कर्म-क्षय के हेतु केन्द्रित कर लेना ही मैं श्रेयस्कर मानता हूँ।) ___ इस श्रेष्ठ लक्ष्य से अनुप्राणित होकर मैं अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म की साधना को अधिक सशक्त बना लेता हूं। सांसारिकता के स्पर्श मात्र से तब मैं चौंकने लग जाता हूँ और मुनि धर्म की सजगता को आत्मसात कर लेता हूँ। तब मेरी सुखद कामना बनती है कि मैं अशुभ कर्मों की तरह शुभ कर्मों का भी क्षय करने लगूं। सम्पूर्ण कर्म-क्षय मेरा, अटल और अन्तिम ध्येय बन जाता है क्योंकि मैं जानता हूँ कि सम्पूर्ण कर्म क्षय के पश्चात् ही चेतन-जड़ संयोग से सम्पूर्ण मुक्ति हो सकती है। इस सम्पूर्ण मुक्ति को ही मैं मेरा मोक्ष मानता हूँ जब मेरी आत्मा सदा सर्वदा के लिये सिद्ध अवस्था में अवस्थित हो जायगी तथा ज्योति-रूप बन जायगी। ___ पाप-पुण्य मीमांसा अपने मोक्ष के संदर्भ में मुझे पाप पुण्य की सम्यक् मीमांसा कर लेनी चाहिये ताकि आत्म विकास का मेरा ध्येय अटल बन सके। पाप-पुण्य के सम्बन्ध में एक तथ्य को मैं पहले जान लूँ। मैं समझू कि यह संसार एक महासागर के समान है जिसको पार करके मुझे दूसरे किनारे पर रहे हुए सिद्ध स्थल पर पहुँचना है। वर्तमान में मेरे आत्म-प्रदेश आठों कर्मों के जटिल बंधनों से बंधे हुए हैं। ये बंधन इतने जटिल हैं कि मैं महासागर के अतल जल में डूबता उतरता हूँ किन्तु अपनी तैरने की शक्ति का उपयोग भी नहीं कर पाता हूँ। तब मेरे विचारों में यह सत्य उभर कर ऊपर आता है कि मैं तैरने की तनिक कोशिश भी तभी कर सकता हूं जब मेरे ये बंधन कम से कम कुछ तो ढीले हो। उस समय का मेरा अनुभव इतना कटुक और दुःखदायक होता है कि मैं इस महासागर में गुलांचे खाने के साथ मगरमच्छों और भयानक जन्तुओं अथवा तूफानों के रूप में आते हुए भीषण खतरों को निरीह दृष्टि से देखता हूं, उन खतरों में बुरी तरह क्षतविक्षत होता रहता हूँ किन्तु जटिल बंधनों के कारण अपने को बचा नहीं पाता हूं। मेरी ऐसी दुरवस्था ही मेरी जागृति का कारण बनती है। तब मैं सोचता हूं कि अब भी मैं अपनी अज्ञान एवं मोह ग्रस्त क्रियाओं के सम्बन्ध में सतर्कता बरतूं और उन क्रियाओं की पुनरावृति को जितनी रोक सकू, रोकने का सत्प्रयास करूं। मेरा यह सत्प्रयास पाप कार्यों को समझ कर उनमें प्रवृति रोकने से प्रारंभ होता है। पाप कार्यों का अठारह प्रकार का जो वर्गीकरण मैंने ऊपर बताया है, उसी पर मैं क्रमिक रूप से चिन्तन करना चाहता हूं कि कैसे अपने दैनिक जीवन में उनसे जितना अधिक हो सके बचता हुआ चलूं । पापों और महापापो में पहला पाप स्थान माना गया है हिंसा को, इसी कारण अहिंसा को परम धर्म का नाम दिया गया है। महापाप की सम्पूर्ण निवृत्ति से ही परम धर्म की प्राप्ति हो सकती है। हिंसा की व्याख्या की गई है—प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा । मैं जब सांसारिक जड़ पदार्थों १०५
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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