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________________ अज्ञान और मेरा मोह मुझे कर्म बंध की ऐसी जटिल शृंखला से बांध देगा कि मेरा उससे छुटकारा बहुत ही कठिन हो जायगा । यही कारण है कि सम्यक् ज्ञान, सम्यक् श्रद्धा तथा सम्यक् आचरण किसी भी विकासशील आत्मा के लिये अनिवार्य है । सम्यक्त्व है तो यही समझ है और सही समझ है तो मानिये कि उन्मुक्त विकास है। इसीलिये मैं कहता हूँ कि मैं प्रबुद्ध हूँ सदा जागृत हूँ। यह बुद्धि और जागृति मुझे हर समय कर्म बंध के प्रति सावधान बनाये रखती है । मैं अपनी प्रत्येक क्रिया की शुभता और अशुभता के विषय में बहुत सतर्क रहता हूँ। यही सतर्कता मुझे अपनी मन, वचन तथा कर्म पर अपना नियंत्रण बनाये रखने में सक्षमता प्रदान करती है । इस सक्षमता के बल पर ही मैं अपनी स्वतंत्रता को बनाये रखता हूँ, तभी हकीकत में मैं अपने 'मैं' पन की सच्ची अनुभूति लेता हूँ । जब मेरा 'मैं' सावधान, सतर्क और स्वतंत्र होता है तो वह कर्मों के आगमन का अवरोध, उपशम एवं क्षय करने के लिये भी अपना सामर्थ्य संचित करता है। मैं जान चुका हूं कि जब भी मैं किसी प्रकार की क्रिया करता हूं तो तदनुकूल कर्मों का मेरे आत्म प्रदेशों के साथ बंध होता है। और यह क्रियाओं का कर्म अविराम गति से मेरा चलता रहता है – कभी भी एक पल के लिये भी यह क्रम रुकता नहीं है। मैं एक क्षण के लिये भी निष्क्रिय नहीं होता हूँ । यदि मैं कोई शुभ क्रिया करता हूँ तो पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा भी होती है तो कभी पुण्य रूप शुभ कर्म का बंध होता है और यदि मैं कोई अशुभ क्रिया करता हूँ तो पाप कर्म का बंध होता है । (शुभ कर्म का बंध मुझे शुभ फल देने वाला बनता है तो अशुभ कर्म के बंध से मुझे अशुभ फल मिलता है। और एक बार कर्म बंध होने के बाद उसका शुभाशुभ फल मुझे भोगना ही पड़ता है। शुभ फल में मुझे सुविचारणा, शुभ वचन तथा शुभ साधनों का संयोग मिलता है जिनकी सहायता से अपने आत्म-विकास के महत्कार्यों में अधिक सक्षम तथा सामर्थ्यवान बनता हूँ । किन्तु मेरा अशुभ फल मुझे अधिक अशुभता में घसीटता है । यदि मेरी सावधानी नहीं जगे तो अशुभता का घनत्व निरन्तर बढ़ता जाता है जिसके कुफल स्वरूप मेरी अशुभ कर्म - बद्धता अधिकाधिक घनीभूत होती जाती है और मैं अधिकाधिक दुःखों से घिरता हुआ चार गति, चौरासी लाख जीवयोनियों में परिभ्रमण करता रहता हूँ । अतः मेरी सावधानी के साथ मेरा यह निश्चय बनता है कि मैं बंधते हुए कर्मों का अवरोध करूं । यह बात मुख्य रूप में अशुभ कर्मों के सम्बन्ध में है। मैं संकल्पबद्ध होकर प्रत्येक क्षण अपनी क्रियाशीलता के विषय में यह ध्यान रखता हूँ कि वह अशुभता से दूर रहे। मैं सत्कार्यों में ही संलग्न रहूं, सत्वचन ही अपने मुंह से निकालूं तथा शुभ ध्यानों में ही अपनी चेतना को केन्द्रित करूं - इसका पक्का खयाल रखता हूँ। यह खयाल ही मुझे अशुभ कर्मों के बंध से बचाता है। इससे अशुभ कर्मों का अवरोध होता है । यह मेरी अवरोध शक्ति जितनी अधिक बढ़ती है, मैं अपने आत्म प्रदेशों को अशुभ कर्म संलग्नता से रक्षित बनाता जाता हूं। अशुभ कर्मों के अवरोध में जब मुझे सफलता मिलने लग जाती है तब मेरी अभिलाषा जागती है कि मैं अपने आत्म प्रदेशों के साथ पहले से संलग्न कर्मों को भी समाप्त करना आरंभ करूँ ताकि मेरी आत्मा हलुकर्मा बनने लगे। यह शुभ कार्य मैं संयम की साधना एवं विविध प्रकार के तपों की आराधना के माध्यम से करना चाहता हूँ। मेरा संयम जितना सशक्त बनता है और तपाराधन जितना कठोर होता है, मेरे बंधे हुए कर्म या तो दबने लगते हैं या धीरे-धीरे क्षय को प्राप्त १०४
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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