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________________ मैं मानता हूँ कि यह आवश्यकता निरन्तर पूरी भी होती रह सकती है, यदि मैं प्रतिपल, प्रतिक्षण आत्म-दर्शन करता रहूँ, आत्मानुभूति लेता रहूं और आत्मसमीक्षण में लगा रहूँ। सम-भाव और समदृष्टि से संसार के सारे प्राणियों को तो देखूं ही, किन्तु सबसे पहले स्वयं को देखूं अपने ही आत्म-स्वरूप को देखूं कि उसका गति-चक्र किस तरह चल रहा है। इसे दृष्टा भाव कहते हैं। आत्मा ही कर्त्ता है किन्तु आत्मा ही अपने आपकी दृष्टा भी हो सकती है। मैं ही मुझको देख रहा हूं कि मैं क्या कर रहा हूं। जो कर रहा है, वह भी मैं हूँ तो मैं सतत देखने वाला भी बन जाऊं कि मैं क्या कर रहा हूं। ये दोनों क्षमताएँ एक साथ कार्यान्वित की जा सकती हैं। मैं एक ही हूँ किन्तु कर्त्ता और दृष्टा की दोनों क्रियाएं मैं एक साथ कर सकता हूँ। कर्त्ता होना मेरी प्रबुद्धता है तो दृष्टा होना मेरी जागृति । मैं प्रबुद्धता और जागृति की इस वेला में स्वयं पुरुषार्थ रत रहूँगा, अपने पुरुषार्थ के खरे-खोटेपन की आलोचना भी मैं ही करूँगा तो आत्म-समीक्षण के बल पर अपने प्रछना मूल गुणों को प्रकाशित का पराक्रम भी मैं ही साधूंगा, क्योंकि मेरी मूल स्वरूप संस्मृति सुदृढ़ बनती हुई चली जा रही है । मेरी क्षमता और मेरी सामर्थ्य-शक्ति जाग उठी है कि मैं अपनी विदशा को जांचूं, अपनी प्राप्त शक्तियों को तौलूं तथा आध्यात्मिकता के नन्दन वन की ओर आगे बढूं। सत्य का विपर्यय है मिथ्या मुझे अपने गति क्रम को निर्धारित करने के पूर्व ही सोचना है कि मेरा अपना क्या है और क्या मेरा नहीं है। क्योंकि इस सांसारिक परिभ्रमण में अधिकांशतः मेरे साथ यही घटता रहा है कि जो तत्त्व मेरे नहीं थे, उन्हें ही मैं समेटता गया और अपने गले लगाता रहा। और जो वास्तव में मेरे अपने तत्त्व थे, उन्हें मैं भूल ही नहीं गया बल्कि उन्हें छोड़ता रहा। अगर कोई अपने शरीर की लज्जा ढकने वाले वस्त्रों को छोड़ता रहे तो उसे नंगा होने से कौन बचा सकेगा ? मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। मैं गुणविहीन आत्मा बनने लग गया— मेरे मानवीय मूल्य अज्ञान और अविवेक के अंधेरों में खो गये । मुझे इसका प्रत्यक्ष कुफल मिला कि मैं सत्य को भूल गया- अपनी उन्मतता में सत्य को भूला ही नहीं, मैं उसका शत्रु भी बन गया। जब मैने सत्य का दामन छोड़ा तो निश्चित था कि मैं मिथ्या की गोद में गिर जाता। यही हुआ और मैं मिथ्यात्व के बियावान बीहड़ में भटकने लगा । मेरी श्रद्धा मिथ्या बन गई, मेरा ज्ञान और आचरण मिथ्या हो गया। सच पूछें तो मैं स्वयं मेरा आत्मस्वरूप इस मिथ्यात्व का प्रतीक बन गया । पिछली स्मृतियों को अपने चित्त में उभारते हुए मुझे समझना है कि मिथ्यात्व आखिर क्या होता है ? सत्य का विपर्यय होता है मिथ्या, जैसे कि प्रकाश का विपर्यय अंधकार होता है। वस्तुतः मिथ्यात्व वह अंधकार होता है जो सत्य से साक्षात्कार तो करने देता ही नहीं है, किन्तु सत्य का दर्शन तक भी नहीं होने देता। पश्चिम दिशा में ले जाने वाला मिथ्यात्व आखिर पूर्व दिशा में उदय होते सूर्य को दिखा ही कैसे सकता है ? आध्यात्मिक दृष्टि से मिथ्यात्व का अर्थ होता है, आत्मिक विपरीतता । जब आत्मा वास्तव में जो जानना चाहिये, वह नहीं जानती बल्कि उससे विपरीत जानती है, जिन तत्त्वों के प्रति श्रद्धा रखनी चाहिये, उन के प्रति श्रद्धा नहीं रखती बल्कि उनसे विपरीत तत्त्वों के प्रति श्रद्धा रखती है अथवा वस्तुतः जिस प्रकार का आचरण किया जाना चाहिये वह ६२.
SR No.023020
Book TitleAatm Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNanesh Acharya
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1995
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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